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{{KKRachna
|रचनाकार=भारतेंदु हरिश्चंद्र
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<poem>
छाँड़ो मेरी बहियाँ लाल, सीखी यह कौन चाल;
हा हा तुम परसत तन, औरन की नारी।
अँगुरी मेरी मुरुक गई, परसत तन पीर भई;
भीर भई देखत सब ठाढ़ीं ब्रज-नारी।
बाट परौ ऐसी बात, मोहिं तौ नहीं सुहात;
काहे इतरात करत अपनो हठ भारी।
’हरीचंद’ लेहु दान, नाहीं तौ परैगी जान;
नैंक करौ लाज, छाँड़ौ अंचल गिरिधारी॥
</poem>