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Kavita Kosh से
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धुँधली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासा,
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँसा। धुआँ-सा। कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है, ; मुंह मुँह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रहा है? दाता , पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे,
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे।
प्यारे स्वदेश के हित अँगार अंगार माँगता हूँ।
चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ।
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है?
मँझदार है, भँवर है या पास है किनारा?
यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का सितारा?
आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा,
भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा।
आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है,
अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ ढेर हो रहा है,
है रो रही जवानी, अँधेर अन्धेर हो रहा है! है। निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है, है।
निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है।
मन की बंधी बँधी उमंगें असहाय जल रही हैहैं, अरमानआरज़ू अरमान-आरज़ू की लाशें निकल रही हैं। भीगीखुशी भीगी-खुली पलों में रातें गुज़ारते हैं, सोती वसुन्धरा जब तुझको पुकारते हैं, हैं।
इनके लिये कहीं से निर्भीक तेज ला दे,
पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे।
विस्फोट माँगता हूँ, तूफान माँगता हूँ।
हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे।
आमर्ष को जगाने वाली शिखा नयी नई दे,
अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे।
विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ।
ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे,
जो राह हो हमारी उसपर दिया जला दे।
गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे, दे।
इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे।
हम दे चुके लहू हैं, तू देवता विभा दे,
अपने अनलविशिख अनल-विशिख से आकाश जगमगा दे। प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ। हूँ, तेरी दया विपद् में भगवान , माँगता हूँ।
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