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नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लाल्टू |संग्रह= }}<poem>(पाब्लो नेरुदा की स्मृति में)…
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{{KKRachna
|रचनाकार=लाल्टू
|संग्रह=
}}<poem>(पाब्लो नेरुदा की स्मृति में)
शहर समुद्र तट से काफी ऊपर है।
अखबारों में आस-पास के ऐतिहासिक स्थलों की तस्वीरों में थोड़ा बहुत पहाड़ है।
जहाँ मैं हूँ, वहाँ छोटा सा जंगल है। इन सब के बीच सड़क बनाती औरत
गले में जमी दिन भर की धूल थूकती है।
औरत गीत गाती है।
गीत में माक्चू-पिक्चू की प्रतिध्वनि है।
चरवाहा है, प्रेयसी है।
इन दिनों बारिश हर रोज होती है।
रात को कंबल लपेटे झींगुरों की झीं-झीं के साथ बांसुरी की आवाज सुनाई देती है।
पसीने भरे मर्द को संभालती नशे में
औरत गीत गाती है।
उसके शरीर में हमेशा मिट्टी होती है।
दूर से भी उसकी गंध मिट्टी की गंध ले आती है।
वह मुड़ती है, झुकती है, मिट्टी उसे घेर लेती है।
ठेकेदार चिल्लाता है, वह सीधी खड़ी होकर नाक में उँगली डालती है।
मेरे बैठक में खबरों के साथ
उसके गंध की लय आ मिलती है।
भात पका रही
औरत गीत गाती है।
मेरी खिड़की के बाहर ओक पेड़ के पत्ते हैं।
डालियाँ खिड़की तक आकर रुक गई हैं।
सुबह बंदर के बच्चे कभी डालियों कभी खिड़की पर
उल्टे लटकते हैं।
पत्तों के बीच में से छन कर आती है धूप
जैसे बहुत कुछ जैसा है
वैसे के बीच में बदलता आता है समय।
आश्वस्त होता हूँ कि नया दिन है
जब जंगल, खिड़की पार कर आती है उसकी आवाज़।
काम पर जा रही
औरत गीत गाती है।
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=लाल्टू
|संग्रह=
}}<poem>(पाब्लो नेरुदा की स्मृति में)
शहर समुद्र तट से काफी ऊपर है।
अखबारों में आस-पास के ऐतिहासिक स्थलों की तस्वीरों में थोड़ा बहुत पहाड़ है।
जहाँ मैं हूँ, वहाँ छोटा सा जंगल है। इन सब के बीच सड़क बनाती औरत
गले में जमी दिन भर की धूल थूकती है।
औरत गीत गाती है।
गीत में माक्चू-पिक्चू की प्रतिध्वनि है।
चरवाहा है, प्रेयसी है।
इन दिनों बारिश हर रोज होती है।
रात को कंबल लपेटे झींगुरों की झीं-झीं के साथ बांसुरी की आवाज सुनाई देती है।
पसीने भरे मर्द को संभालती नशे में
औरत गीत गाती है।
उसके शरीर में हमेशा मिट्टी होती है।
दूर से भी उसकी गंध मिट्टी की गंध ले आती है।
वह मुड़ती है, झुकती है, मिट्टी उसे घेर लेती है।
ठेकेदार चिल्लाता है, वह सीधी खड़ी होकर नाक में उँगली डालती है।
मेरे बैठक में खबरों के साथ
उसके गंध की लय आ मिलती है।
भात पका रही
औरत गीत गाती है।
मेरी खिड़की के बाहर ओक पेड़ के पत्ते हैं।
डालियाँ खिड़की तक आकर रुक गई हैं।
सुबह बंदर के बच्चे कभी डालियों कभी खिड़की पर
उल्टे लटकते हैं।
पत्तों के बीच में से छन कर आती है धूप
जैसे बहुत कुछ जैसा है
वैसे के बीच में बदलता आता है समय।
आश्वस्त होता हूँ कि नया दिन है
जब जंगल, खिड़की पार कर आती है उसकी आवाज़।
काम पर जा रही
औरत गीत गाती है।
</poem>