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{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
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यह कौन चाहता है बापूजी की काया

कर शीशे की ताबूत-बद्ध रख ली जाए,

जैसे रक्‍खी है लाश मास्‍को में अब तक

लेनिन की, रशिया

के प्रसिद्धतम

नेता की।


हम बुत-परस्‍त मशहूर भूमि के ऊपर हैं,

शव-मोह मगर हमने कब ऐसा दिखलाया,

क्‍या राम, कृष्‍ण, गौतम, अकबर की

हम, अगर चाहते,

लाश नही रख

सकते थे।


आत्‍मा के अजर-अमरता के हम विश्‍वासी,

काया को हमने जीर्ण वसन बस माना है,

इस महामोह केी बेला में भी क्‍या हमको

वाजीब अपनी

गीता का ज्ञान

भुलना है।


क्‍या आत्‍मा को धरती माता का ऋण है,

बापू को अपना अंतिम कर्ज चुकाने दो,

वे जाति, देश, जग, मानवता से उऋण हुए,

उन पर मृत मिट्टी

का ऋण मत रह जाने दो।


रक्षा करने की वस्‍तु नहीं है उनकी काया,

उनकी विचार संचित करने की चीज़ें हैं,

उनको भी मत जिल्‍दों में करके बंद धरो,

उनके जन-जन

मन-मन, कण-कण

में बिखरा जाओ।
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