भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रदीप कान्त |संग्रह= }} {{KKCatGeet}} <poem> शरद की हवा ये रंग …
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=प्रदीप कान्त
|संग्रह=
}}
{{KKCatGeet}}
<poem>
शरद की हवा ये रंग लाती है,
द्वार-द्वार, कुंज-कुंज गाती है।
:::फूलों की गंध-गंध घाटी में
:::बहक-बहक उठता अल्हड़ हिया
:::हर लता हरेक गुल्म के पीछे
:::झलक-झलक उठता बिछुड़ा पिया
भोर हर बटोही के सीने पर
नागिन-सी लोट-लोट जाती है।
:::रह-रह टेरा करती वनखण्डी
:::दिन-भर धरती सिंगार करती है
:::घण्टों हंसिनियों के संग धूप
:::झीलों में जल-विहार करती है
दूर किसी टीले पर दिवा स्वप्न
अधलेटी दोपहर सजाती है।
:::चाँदनी दिवानी-सी फिरती है
:::लपटों से सींच-सींच देती है
:::हाथ थाम लेती चौराहों के
:::बाँहों में भींच-भींच लेती है
शिरा-शिरा तड़क-तड़क उठती है
जाने किस लिए गुदगुदाती है।
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=प्रदीप कान्त
|संग्रह=
}}
{{KKCatGeet}}
<poem>
शरद की हवा ये रंग लाती है,
द्वार-द्वार, कुंज-कुंज गाती है।
:::फूलों की गंध-गंध घाटी में
:::बहक-बहक उठता अल्हड़ हिया
:::हर लता हरेक गुल्म के पीछे
:::झलक-झलक उठता बिछुड़ा पिया
भोर हर बटोही के सीने पर
नागिन-सी लोट-लोट जाती है।
:::रह-रह टेरा करती वनखण्डी
:::दिन-भर धरती सिंगार करती है
:::घण्टों हंसिनियों के संग धूप
:::झीलों में जल-विहार करती है
दूर किसी टीले पर दिवा स्वप्न
अधलेटी दोपहर सजाती है।
:::चाँदनी दिवानी-सी फिरती है
:::लपटों से सींच-सींच देती है
:::हाथ थाम लेती चौराहों के
:::बाँहों में भींच-भींच लेती है
शिरा-शिरा तड़क-तड़क उठती है
जाने किस लिए गुदगुदाती है।
</poem>