भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
वह कहती, ’हैं तृण तरु-प्राणी जितने, मेरे बेटा बेटी!’
मैं मिट्टी हूँ, मेरे भीतर सोना-रूपा, नौरतन भरे!
मैं सूखी हूँ, पर मुझसे ही फल-फूल और बन-बाग हरे!
मैं पाँवों के नीचे, मैं ही हूँ पर पर्वत पर की चोटी!
मेरी छाती पर शत पर्वत, मैं मिट्टी हूँ सब से छोटी!
मैं मिट्टी हूँ--अंधी मिट्टी, पर मुकुल-फूल मेरी आँखें!
मैं मिट्टी हूँ--जड़ मिट्टी हूँ, पर पत्रों में मेरी पाँखें!
मैं मिट्टी हूँ--मैं वर्णहीन, पर निकले मुझसे वर्ण सकल!
मेरे रस में प्रसून रंजित, रंजित नव अंकुर, पल्लव-दल!
मैं गंधहीन,
</poem>