भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तभी लोग जीते हैं / त्रिलोचन

1,062 bytes added, 05:51, 6 दिसम्बर 2009
नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=त्रिलोचन }}<poem>सुग्गों की पाँत कौन गिनती करे इनकी …
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=त्रिलोचन
}}<poem>सुग्गों की पाँत
कौन गिनती करे इनकी
फिर भी हजार से कम तो नहीं होंगे।

किसान लाठी भाँजता हुआ
अपने खेत के चक्कर लगाता है
अगर वह एसा न करे
धान की एक भी बाली घर न पहुँचे।

इति भीति सभी से बचाना है
खेती को, तभी घर और घर वाले
सुख पाएँगे, खाएँगे, खेलेंगे।

बंदर, नील गाय आदि खेती पर
झुंड़ के झुंड टूट पडेंगे
फिर तो कुछ भी नहीं बचेगा।

किसान की किसानी
दिन रात में भेद नहीं करती
तभी लोग जीते हैं।</poem>
750
edits