गृह
बेतरतीब
ध्यानसूची
सेटिंग्स
लॉग इन करें
कविता कोश के बारे में
अस्वीकरण
Changes
औरत-9 / चंद्र रेखा ढडवाल
6 bytes removed
,
10:25, 13 दिसम्बर 2009
या पाऊँचा सलवार का
पर सब
घरों में होती है
घर खींचते हैं
ज़ाहिर या नहीं ज़ाहिर-सी
एक
लकीर
जिसके भीतर रहना
एक मात्र विकल्प औरत के लिए
पर सब घर
खड़ाऊँ पहने
जिसके अग्नि-मुख
बन्द करती फिरती
है
औरत.
</poem>
द्विजेन्द्र द्विज
Mover, Uploader
4,005
edits