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{{KKRachna
|रचनाकार=त्रिलोचन
}}<poem>बरस यह विचित्र रहा
बादल तो आए
अतिकाल कर के आए
जब खेती करने में प्राप्ति कुछ नहीं होती।
पृथ्वी तचती रही
मुरैले कला अपनी भूल गए
क्या हुआ पपीहों को
दादुर भी चुप रहे।
सरकारें
राज्यों की, देश की
सनाका खा गईं,
चुपाई रहीं।
क्या करे किसान
मेह गायब है
जल ही दिखाई न दे
तब खेती कैसे हो।
3.12.2002</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=त्रिलोचन
}}<poem>बरस यह विचित्र रहा
बादल तो आए
अतिकाल कर के आए
जब खेती करने में प्राप्ति कुछ नहीं होती।
पृथ्वी तचती रही
मुरैले कला अपनी भूल गए
क्या हुआ पपीहों को
दादुर भी चुप रहे।
सरकारें
राज्यों की, देश की
सनाका खा गईं,
चुपाई रहीं।
क्या करे किसान
मेह गायब है
जल ही दिखाई न दे
तब खेती कैसे हो।
3.12.2002</poem>