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:फूल अपने और इसके
::हुआ कृष्णार्पण कि तेरी
:::बाँसुरी बन जायगी यह! :::प्यार पाकर सिर चढ़ी, तो::प्यार पाकर सूखती है,:कलम कर दे लिपटनाफिर सौ गुनी लिपटायगी यह। नदी का गिरना पतन है:वल्लरी का शीश चढ़ना,::पतन की महिमा बनी तब:::शीश पर हरियायगी यह। :::मत चढ़ा चंदन चरण पर::मत इसे व्यंजन परोसे:कुंभिपाकों ऊगती आई;वहीं फल लायगी यह। सहम मत, तेरे फलों का:कौन-सा आलम्ब बेली?::तू भले, फल दे, न दे,:::अपनी बहारों आयगी यह। :::किस जवानी की अँधेरी--::में बढ़े जा रहे दोनों:बन्द कलियाँ, बन्द अँखियाँकौन-सा दिन लायगी यह।  
'''रचनाकाल:
</poem>
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