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Kavita Kosh से
कौन-सा दिन लायगी यह।
फेंक कर फूलों इरादे,
:भूमि पर होना समर्पित,
::सिर उठाकर पुण्य भू का
:::पुण्य-पथ समझायगी यह।
:::एक तेरी डालि छूटे,
::दूसरी गह ले गरब से
:डालि जो टूटी, कि अबला--
सिद्ध कर दिखलायगी यह।
मेह की झर है न तू, जो--
:मौसमों में बरस बीते,
::नेह की झर सूखकर
:::तुझको अवश्य सुखायगी यह।
:::तू तरुणता का सँदेशा::भूमि का विद्रोह प्यारे,:शीश पर तू फूल ला, बसचरण में बस जायगी यह। या कि इसको हृदय से:ऐसी लपेट की दाँव भूले::सूर्य की संगिनि दुपहरी-:::सी स्वयं ढल जायगी यह। :::रे नभोगामी, न लख तू::रूप इसका, रंग इसका,:तू स्वयं पुरुषार्थ दिखलातब कला बन जायगी यह। लता से जब लता लिपटे?:गर्व हो? किस बात का हो?::तू अचल रह, स्वयं चल कर:::ही चरण पर आयगी यह। :::भूमि की इच्छा, मिलन की-::साध, मिटने की प्रतीक्षा-:तब अमित बलशालिनी हैजब तुझे पा जायगी यह! चढ़न है विश्वास इसका,:लिपटना इसकी परमता,::जो न चढ़ पाई कहीं तो:::नष्ट मुरझा जायगी यह। :::पहिन कर बंधन, न बंधन::में इसे तू जान गाफ़िल,:जिस तरफ फैली कि नव-बन्धन बनाती जायगी यह। डालियाँ संकेत विभु के:वल्लरी उन्माद भाषा,::लिपटने के तुक मिलाते:::छन्द गढ़ती जायगी यह। और जो होना समर्पण है,:इसी की साध बनकर::शीश ले इसके फलों को:::तब बहारों आयगी यह। '''रचनाकाल: व्योहार निवास, जबलपुर-१९३९
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