838 bytes added,
07:24, 14 दिसम्बर 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=हिमांशु पाण्डेय
}}
<poem>
कौतूहल एक धुआँ है
उपजता है तुम्हारी दृष्टि से,
मैं उसमें अपनी आँखे मुचमुचाता
प्रति क्षण प्रवृत्त होता हूँ
आगत-अनागत के रहस लोक में
समय की अनिश्चित पदावली
मेरी चेतना का राग-रंग हेर डालती है
जो निःशेष है वह ध्वनि का सत्य है ,
वह सत्य जो निर्विकल्प है,
गूढ़ है, पर सहज ही अभिव्यक्त है ।
</poem>