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व्रतबंध / कविता वाचक्नवी

42 bytes added, 09:22, 17 दिसम्बर 2009
मेरी आँखों का नमकीन घोल
तुम्हारी दाल में न जा गिरे ;
::: कसैली दाल भी क्या परोसी जाती है, भला?
मैं शक्कर और नमक के
कोई अधूरी पंक्ति पूरी कर दो न!!
:::यह सच है, सखे.......:::मेरी भाषा की गढ़न:::कविता नहीं लिख सकती,:::वाक्‌ और अर्थ के नियंता:::सुधीजन:::चकला-बेलन की चतुर्दिक परिधि में फैले आटे में:::बुझी तीलियों से:::कविता लिखने के अपराध में:::दंडित भी करेंगे मुझे,:::बवाल भी करेंगे खूबपर:::तुम्हारी दाल-भात छुई उँगलियाँ:::आटे में उकेरी कविता को बचा लें:::इसी विश्वास से भर:::मैं, तुम्हें:::अपने चौके में बिठा:::अपने हाथों से परोस:::लवण और शक्कर:::सब चखाना चाहती हूँ.....।
बचा सको
दो आँसुओं से
हस्त-प्रक्षालन करवा दूँ।
::::: संकल्प के मंत्र तो ::::: आते होंगे तुम्हें........?
</poem>