::अमर शान्ति ने अमर
::क्रान्ति अवतार तुझे पहचाना।
तू कपास के तार-तार में अपनापन जब बोता,
राष्ट्र-हृदय के तार-तार में पर वह प्रतिबिम्बित होता,
झोपड़ियों का रुदन बदल देता तू मुसकाहट में,
करती है श्रृंगार क्रान्ति तेरी इस उलट-पुलट में।
::उस-सा उज्ज्वल, उस-सा
::गुणमय, लाज बचाने वाला
::है कपास-सा परम-मुक्ति का
::तेरा ताना-बाना।
अरे गरीब-निवाज, दलित जी उठे सहारा पाया,
उनकी आँखों से गंगा का सोता बह कर आया,
तू उनमें चल पड़ा राष्ट्र का गौरव पर्व-मनाकर
उन आँखों में पैठ गया तू अपनी कुटी बनाकर।
::तुझे मनाने कोटि-कोटि
::कंठों ने क्या-क्या गाया
::जो तुझको पा सका--
::गरीबों के जी में ही पाया।
'''रचनाकाल: प्रताप प्रेस, कानपुर-१९४४
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