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दर्शन / जयशंकर प्रसाद

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|संग्रह=झरना / जयशंकर प्रसाद
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जीवन-नाव अँधेरे अन्धड़ मे चली।
 
अद्भूत परिवर्तन यह कैसा हो चला।
 
निर्मल जल पर सुधा भरी है चन्द्रिका,
 
बिछल पड़ी, मेरी छोटी-सी नाव भी।
 
वंशी की स्वर लहरी नीरव व्योम में-
 
गूँज रही हैं, परिमल पूरित पवन भी-
 
खेल रहा हैं जल लहरी के संग में।
 
प्रकृति भरा प्याला दिखलाकर व्योम में-
 
बहकाती हैं, और नदी उस ओर ही-
 
बहती हैं। खिड़की उस ऊँचे महल की-
 
दूर दिखाई देती हैं, अब क्यों रूके-
 
नौका मेरी, द्विगुणित गति से चल पड़ी।
 
किन्तु किसी के मुख की छवि-किरणें घनी,
 
रजत रज्जु-सी लिपटी नौका से वहीं,
 
बीच नदी में नाव किनारे लग गई।
 
उस मोहन मुख का दर्शन होने लगा।
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