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गान / जयशंकर प्रसाद

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|रचनाकार=जयशंकर प्रसाद}}   |संग्रह=कानन-कुसुम -/ जयशंकर प्रसाद}} {{KKCatKavita}}<poem>
जननी जिसकी जन्मभूमि हो; वसुन्धरा ही काशी हो
 
विश्व स्वदेश, भ्रातु मानव हों, पिता परम अविनाशी हो
 
दम्भ न छुए चरण-रेणु वह धर्म नित्य-यौवनशाली
 
सदा सशक्त करों से जिसकी करता रहता रखवाली
 
शीतल मस्तक, गर्म रक्त, नीचा सिर हो, ऊँचा कर भी
 
हँसती हो कमला जिसके करूणा-कटाक्ष में, तिस पर भी
 
खुले-किवाड़-सदृश हो छाती सबसे ही मिल जाने को
 
मानस शांत, सरोज-हृदय हो सुरभि सहित खिल जाने को
 
जो अछूत का जगन्नाथ हो, कृषक-करों का ढृढ हल हो
 
दुखिया की आँखों का आँसू और मजूरों का कल हो
 
प्रेम भरा हो जीवन में, हो जीवन जिसकी कृतियों में
 
अचल सत्य संकल्प रहे, न रहे सोता जागृतियों में
 
ऐसे युवक चिरंजीवी हो , देश बना सुख-राशी हो
 
और इसलिये आगे वे ही महापुरुष अविनाशी हो
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