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गा कोकिल, बरसा पावक कण / सुमित्रानंदन पंत
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11:52, 21 दिसम्बर 2009
::::व्यक्ति-राष्ट्र-गत राग-द्वेष रण,
::::झरें, मरें विस्मृति में तत्क्षण!
गा, कोकिल, गा,
--
कर मत चिन्तन!
::नवल रुधिर से भर पल्लव-तन,
::नवल स्नेह-सौरभ से यौवन,
द्विजेन्द्र द्विज
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