Changes

क्या तुम केवल चिर-अवगुंठन,
अथवा भीतर जीवन-कम्पन?
::कल्पना मात्र मृदु देह-लता,
::पा ऊर्ध्व ब्रह्म, माया विनता!
::है स्पृश्य, स्पर्श का नहीं पता,
::है दृश्य, दृष्टि पर सके बता!
पट पर पट केवल तम अपार,
पट पर पट खुले, न मिला पार!
सखि, हटा अपरिचय-अंधकार
खोलो रहस्य के मर्म द्वार!
::मैं हार गया तह छील-छील,
::आँखों से प्रिय छबि लील-लील,
::मैं हूँ या तुम? यह कैसा छ्ल!
::या हम दोनों, दोनों के बल?
तुम में कवि का मन गया समा,
तुम कवि के मन की हो सुषमा;
हम दो भी हैं या नित्य एक?
तब कोई किसको सके देख?
::ओ मौन-चिरन्तन, तम-प्रकाश,
::चिर अवचनीय, आश्चर्य-पाश!
::तुम अतल गर्त, अविगत, अकूल,
::फैली अनन्त में बिना मूल!
अज्ञेय गुह्य अग-जग छाई,
माया, मोहिनि, सँग-सँग आई!
तुम कुहुकिनि, जग की मोह-निशा,
मैं रहूँ सत्य, तुम रहो मृषा!
 '''रचनाकाल: अप्रैल’१९३५अप्रैल’१९३६'''
</poem>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
19,333
edits