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मानव / सुमित्रानंदन पंत

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हो स्तम्भ सभ्यता के पार्थिव,
संस्कृति स्वर्गीय,--स्वभाव-पूर्ति!
::मानव का मानव पर प्रत्यय,
::परिचय, मानवता का विकास,
::विज्ञान-ज्ञान का अन्वेषण,
::सब एक, एक सब में प्रकाश!
प्रभु का अनन्त वरदान तुम्हें,
उपभोग करो प्रतिक्षण नव-नव,
क्या कमी तुम्हें है त्रिभुवन में
यदि बने रह सको तुम मानव!
'''रचनाकाल: अप्रैल’१९३५'''
</poem>
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