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पड़ गया बंगाल बंगाले में काल,
भरी कंगालों से धरती,
भरी कंकालों से धरती!
क्याक दीनता ले असंख्य अवतार,पेट खला,हाथ पसार,पाँच उँगलियाँ बाँध,मुँह दिखला,भीतर घुसी हुई आँखों से,आँसू ढार,मानव होने का सारा सम्मान बिसार,घूमती गाँव-गाँव,घूमती नगर-नगर,बाज़ारों-हाटों में, दर-दर, द्वार-द्वार! अरे, यह भूख हुई साकार,दीर्घाकार!तृप्त कर सकता इसको कौन?पेट भर सकता इसका कौन?भूख ही होती, लो, भोजन!मृत्यु अपना मुख शत-योजनखोलती,खाती और चबाती,मोद मनाती,मग्न हो मृत्यु नृत्य करती!नग्न हो मृत्यु नृत्य करती!देती परम तुष्टि की ताल,पड़ गया बंगाले में काल,भरी कंगालों से धरती,भरी कंकालों से धरती! क्या कहा?
कहाँ पड़ गया काल,
कहाँ कंगाल,
सिंचित करते वसुंधरा का
आँगन उर्वर।
 
जिसमें उगते-बढ़ते तरुवर,
लदे दलों से,
फँदे फलों से,
सजे कली-कली कुसुमों से सुन्द,र।सुंदर।
वहीं वही बंगाल--देख जिसे पुलकित नेत्रों से,
भरे कंठ से,
गद्गद् स्वुर गद्गद स्वर से,कवि ने गया गाया राष्ट्र गान वह-वन्देे वन्दे मातरम्,सुजलम्सुजलाम्, सुफलम्सुफलाम्, मलयज शीतलम्शीतलाम्,शस्यम श्यतमलाम्शस्य श्यामलाम्, मातरम्।मातरम्... वहीं बंगाल-जिसकी एक साँस ने भर दीमेरे देश में जान,आत्म सम्मा न,आजादी की आन,आज,काल की गति भी कैसी, हाय,स्व यं असहाय,स्व यं निरुपाय,स्व यं निष्प्रा ण,मृत्यु के भुख से होकर ग्रस,गिन रहा है जीवन की साँस-साँस। हे कवि, तेरे अमर गान कीसुजला, सुफला,मलय गंधिताशस्यग श्याफमला,फुल्लं कुसुमिता,द्रुम सुसज्जिता,चिर सुहासिनी,मधुर भाषिणी,धरणी भरणी,जगत वन्दिताबंग भूमी अब नहीं रही वह!बंग भूमी अब शस्यभ हीन है,दीन क्षीण है,चिर मलीन है,भरणी आज हो गई है हरणी;जल दे, फल दे और अन्नग देजो करती थी जीव दान,मरघट-सा अब रुप बनाकरअजगर-सा अब मुँह फैलाकरखा लेती अपनी संतान! बोल बंग की वीर मेदिनी,अब वह तेरी आग कहाँ है,आज़ादी का राग कहाँ है,लगन कहाँ है, लाग कहाँ है! बोल बंग के वीर मेदिनी,अब तेरे सिरताज कहाँ हैं,अब तेरे जाँबाज़ कहाँ हैं,अब तेरी आवाज़ कहाँ हैं!  बंकिम ने गर्वोन्नँत ग्रीवाउठा विश्वग सेथा यह पूछा,'के बले मा, तुमि अबले?' मैं कहता हूँ,तू अबला है।तू होती, मा,अगर न निर्बल,अगर न दुर्बल,तो तेरे यह लक्-लक्ष सुतवंचित रहकर उसी अन्ने से,उसी धान्यर सेजिस पर है अधिकार इन्हींं का,क्योंर कि इन्होंकने अपने श्रम सेजोता, बोया,इसे उगाया,सींच स्वे द सेइसे बढ़ाया,काटा, मारा, ढोया,भूख-भूख कर,सूख-सूखकर,पंजर-पंजर,गिर धरती पर,यों न तोड़ देते अपना दमऔर नपुंसक मृत्युअ न मरते।भूखे बंग देश के वासी! छाई है मुरदनी मुखों पर,आँखों में है धँसी उदासी;विपद् ग्रस्त हो,क्षुधा त्रस्तध हो,चारों ओर भटके फिरते,लस्तं-पस्त, होऊपर को तुम हाथ उठाते। मुझसे सुन लो,नहीं स्वनर्ग से अन्न‍ गिरेगा,नहीं गिरेगी नभ से रोटी;किन्तुि समझ लो,इस दुनिया की प्रति रोटी में,इस दुनिया के हर दाने में,एक तुम्हा रा भाग लगा है,एक तुम्हाररा निश्चित हिस्साा,उसे बँटाने,उसको लेने,उसे छिनने,औ' अपनाने,को जो कुछ भी तुम करते हो,सब कुछ जायज,सब कुछ रायज। नए जगत में आँखें खालों,नए जगगत की चालें देखों,नहीं बुद्धि से कुछ समझा तोठोकर खाकर तो कुछ सीखों,और भुलाओ पाठ पुराने। मन से अब संतोष हटाओ,असंतोष का नाद उठाओ,करो क्रांति का नारा ऊँचा,भूखों, अपनी भूख बढ़ाओ,और भूख की ताकत समझो,हिम्मखत समझो,जुर्रत समझो,कूबत समझो;देखो कौन तुम्हासरे आगेनहीं झुका देता सिर अपना। हमें भूख का अर्थ बताना,भूखों, इसको आज समझ लो,मरने का यह नहीं बहाना!
फिर वन्दे मातरम्--जो नगपति के उच्च शिखर से जीवितरासकुमारी के पदनख तक,फिर से जाग्रततगिरि-गह्वर में,फिर से उन्नरतवन प्रांतर में,मरुस्थलों में, मैदानों में,खेतों में औ’ खलिहानों में,गाँव-गाँव में,नगर-नगर में,डगर-डगर में,बाहर-घर में,होने स्वतंत्रता का है भूख निमंत्रणमहामंत्र बन,है आवाहन।कंठ-कंठ से हुआ निनादित,कंठ-कंठ से हुआ प्रतिध्वनित।
भूख नहीं दुर्बल, निर्बल है,जपकर जिसको आजादी के दीवानों नेभूख सबल है,कितने हीभूख प्रबल हे,दी मिला जवानीभूख अटल है,भूख कालिका है, काली है;या काली सर्व भूतेषुक्षुधा रूपेण संस्थिता,नमस्तासै, नमस्तलसै,नमस्तासै नमोनम:!भूख प्रचंड शक्तिशाली है;या चंडी सर्व भूतेषुक्षुधा रूपेण संस्थिता,नमस्तासै, नमस्तलसै,नमस्तासै नमोनम:!भूख्‍ा अखंड शौर्यशाली है;या देवी सर्व भूतेषुक्षुधा रूपेण संस्थिता,नमस्तासै, नमस्तलसै, नमस्तशसै नमोनम:!मिट्टी में काले पानी में।
भूख भवानी भयावनी है,अगणित पद, मुख, कर वाली है,बड़े विशाल उदारवाली है।भूख धरा पर जब चलती हैवह डगमग-डगमग हिलती है।वह अन्यापय चबा जाती है,अन्या्यी को खा जाती है,और निगल जाती है पल मेंआतताइयों का दु:शासन,हड़प चुकी अब तक कितने हीअत्याचचारी सम्राटों केछत्र, किरीट, दंड, सिंहासन!</poem>
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