भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
{{KKCatKavita}}
<poem>
वहीं बंगाल--
जिसकी एक साँस ने भर दी
आजादी की आन,
आज,
काल की गति भी कैसी, हाय,
हे कवि, तेरे अमर गान की
सुजला, सुफला,
मलय गंधिता
द्रुम सुसज्जिता,
चिर सुहासिनी,
धरणी भरणी,
जगत वन्दिता
बंग भूमी भूमि अब नहीं रही वह! बंग भूमी अब शस्यभ शस्य हीन है,
दीन क्षीण है,
चिर मलीन है,
भरणी आज हो गई है हरणी;जल दे, फल दे और अन्नग अन्न देजो करती थी जीव जीवन दान,मरघट-सा अब रुप रूप बनाकर,
अजगर-सा अब मुँह फैलाकर
खा लेती अपनी संतान!
बच्चे और बच्चियाँ खाती,
लड़के और लड़कियाँ खाती,
खाती युवक, युवतियाँ खाती,
खाती बूढ़े और जवान,
निर्ममता से एक समान;
बंग भूमि बन गई राक्षसी--
कहते ही लो कटी ज़बान!...
भूख-भूख कर,
सूख-सूखकर,
</poem>