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|रचनाकार=महावीर शर्मा
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विरह की अगन जलाये रे !
फगुआ, झूमर औ चौताला जब परवान चढ़ी जाये
ढोल, मँजीरे और मृदंगा , तुम बिन जिय धड़काये रे।
बीत ना जाये ये फागुन भी, जियरा तरसे होली खेलन
मधुकर भी मधु-रस पी पी कर, फूलों पर मँडराये रे।
हरे वसन के घूंघट से सरसों भी मुख चमकाये रे ! !
</poem>
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