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झपकी / मोहन राणा

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|संग्रह=पत्थर हो जाएगी नदी / मोहन राणा
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नंगे पेड़ों पर
 
उधड़ी हुई दीवारों पर
 
बेघर मकानों पर
 
खोए हुए रास्तों पर
 
भूखे मैदानों पर
 
बिसरी हुई स्मृतियों पर
 
बेचैन खिड़कियों पर
 
छुपी हुई छायाओं में बीतती दोपहर पर,
 
हल्का सा स्पर्श
 
ढांप लेता हूँ उसे हथेलियों से,
 
उठता है मंद होते संसार का स्वर
 
आँख खुलते ही
 '''रचनाकाल: 3.2.2005</poem>
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