|संग्रह=चाहे जिस शक्ल से / विजय कुमार
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'''मौत एक मांदगी का वक्फ़ा है'''
'''यानी आगे चलकर दम लेंगे !'''
::::'''--मीर तक़ी मीर'''
जब हम
बात बेबात हँसने के आदी हो जाएंगे
एक-दूसरे के
किसी और तरह से क़रीब आएंगे
हमें गुस्सा रह-रहकर
केवल फुरसत में आएगा
हम अपने अभावों की चर्चा में
फिर पड़ोसियों का ज़िक्र नहीं करेंगे
मैं कहूंगा शुरू जवानी के सपनों के लिए
अब भी वफ़ादार है कोई
मैं अपने अकेलेपन में
तुम्हारे अकेलेपन को ढूंढता हुआ आऊंगा
हवा बहुत तेज़ होगी
हमारे काँपते हुए हाथ
एक दूसरे के क्षत-विक्षत चेहरों को टटोलेंगे
फिर एक हूक उठेगी पुराने दिनों की
हम मूर्ख फ़रिश्तों की तरह होंगे
दुनिया की अच्छाई के बारे में यक़ीन करते हुए
हमें तब भी मालूम नहीं होगा
कि कहाँ बोलना बन्द कर देना चाहिए
यह जीवन एक मरीचिका है, मरीचिका
हम में से ही कोई कहेगा
हम फिर भी किसी और जीवन की तलाश में होंगे
एकदम थके हुए
भाग्य से रीते ।
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