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जलसाघर (कविता) / श्रीकांत वर्मा

448 bytes removed, 09:03, 29 दिसम्बर 2009
|रचनाकार=श्रीकांत वर्मा
|संग्रह=जलसाघर / श्रीकांत वर्मा
 
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<poem>
-यही सोचते हुए गुज़र रहा हूँ मैं कि गुज़र गयी
बगल से
::::::गोली दनाक से।
राहजनी हो या क्रान्ति ? जो भी हो, मुझको
गुज़रना ही रहा है
::::::::शेष।
देश
:::::::नक्शे में
देखता रहा हूँ हर साल नक्शा बदलता है
कच्छ हो या चीन
:::::::तब तक
दूसरी गोली दनाक से।
हद हो गयी, मुझको कहना ही पड़ेगा, हद कहीं नहीं
चले आओ अंदर
:::::::मुझको उघाड़कर
चूतड़ पर बेंत मार
चेहरे पर लिख दो यह गधा है। तब भी जो जहाँ
है, वहीं बँधा है
:::::अपनी बेहयाई को
सँवारता हुआ चौदह पैसे की कंघी से
-यही सोचते हुए गुज़र रहा हूँ मैं कि गुज़र गयी<br>बगल से<br>::::::गोली दनाक से।<br>राहजनी हो या क्रान्ति ? जो भी हो, मुझको<br>गुज़रना ही रहा है<br>::::::::शेष।<br>देश<br>:::::::नक्शे में <br>देखता रहा हूँ हर साल नक्शा बदलता है<br>कच्छ हो या चीन<br>:::::::तब तक<br>दूसरी गोली दनाक से।<br>हद हो गयी, मुझको कहना ही पड़ेगा, हद कहीं नहीं<br>चले आओ अंदर<br>:::::::मुझको उघाड़कर<br>चूतड़ पर बेंत मार<br>चेहरे पर लिख दो यह गधा है। तब भी जो जहाँ<br>है, वहीं बँधा है<br>:::::अपनी बेहयाई को<br>सँवारता हुआ चौदह पैसे की कंघी से<br><br> चले जाओ<br>चकले पर, टाट पर, जहन्नुम में, लाट पर,<br>खुदबुदाते हुए प्रेम, बिलबिलाती हुई इच्छा, हिनहिनाते<br>हुए क्रोध को मरोड़ दो। क्या होगा ? छूँछा<br>होता हूँ हर बार ताकि और भी मवाद हो।<br><br>
दाद हो खुजली हो, खाज हो हरेक के लिए<br>है<br>:::::::मुफीद,<br>आजमाइए, मथुरा का सूरदास मलहम।<br>क्या कहा ? सांडे का तेल ? नहीं, नहीं,<br>कामातुर स्त्रियाँ, लौट जायें, वामाएँ,<br>मैंने गुज़ार दी, ऐसे ही, लौट जायें<br>:::::सब अपने-अपने ठिकानों पर<br>पाप संसार में,<br>::मन्त्री अस्तबल में,<br>::पाखण्डी गर्भ में,<br>::::अफसर जिमखानों में।<br><br>
वर्षा नहीं होगी, खबरों के अपच से, सब-के-सब मरेंगे<br>एक राजधानी को छोड़<br>उठती है मरोड़ अभी से टीका लगवाइए घी का<br>भाव दूना हो गया है सूना<br>लगता है लस्सा ही<br>:::::::नहीं रहा।<br>क्या कहा ? नहीं, नहीं मथुरा का सूरदास मलहम<br>मुफीद है<br>::::दाद हो, खुजली हो, खाज हो,<br>- जिस किसी का राज हो<br>मुझको मंजूर नहीं किसी की भी शर्त, किसी की दलील<br>::::कि उसने मारा मेरे दुश्मन को<br>कोई मेरा वकील नहीं,<br>मर्दुमशुमारी के पहले ही मुझे कूच कर जाना है हरेक कूचे से<br>::::सब की मतदान पेटियों में<br>::::कम होगा एक-एक वोट,<br>मुझको मंजूर नहीं किसी की शर्त।<br><br>
मुझ को गुज़रना है भरी हुई भीड़ से, मक्खियों के <br> झुण्ड से<br>एक-एक कर अपने सभी दोस्तों के नजदीक से<br>ठीक से<br>चलो कहकर, मुझको धकियाता है, ऊलजुलूल,<br>आँखें तरेर कर<br>घेर कर<br>कहाँ लिये जाते हो मुझ को मेरे विरुद्ध?<br>छोड़ दो, छोड़ो, छोड़ो वरना ! वरना के आगे<br>कुछ नहीं, बस स्टॉप है जिसका<br>मुँह<br>किसी की तरफ नहीं।<br>मुझे भी बदल दो बस स्टॉप में<br>छोड़ <br> दिया गया है<br>मुझे अनंतकाल तक<br>भटकने<br>के लिए<br>इस प्रलाप में<br><br>
ऑनरेरी सर्जन। कनसल्टेंट, मिलने का समय, पाँच से सात,<br>मेरा उद्धार करो--<br>मेरा स्वाद बदल रहा है, रहते-रहते<br>मैं भी<br>यहाँ का<br>हो चला<br>हो चली <br> शाम<br>बदलो, बदलो अपने मिलने का समय, यह समय वह समय<br>नहीं<br><br>
दुख, लेन-देन, रह गया माल, दुर्घटना, वेश्या, घेराव,<br>कम्युनिस्ट पार्टी की जनता, जनसंघ का लोक<br>किये का शोक, अनकिये का<br>शोक<br>छा गया है<br>खुदाबख्श हिजड़े की बेवजह मौत पर, फौजदारी<br>कायम हो,<br>कायम हो, तुम अब तक, वैसे<br>सच यह है<br>मैं तुमको पहचान नहीं पाया था अबकी,<br>जाने कब-कब की उतर रही है<br>साथ-साथ<br>छतों से, पलंग से, सीढ़ी से<br>नीली, पीली, बजी हुई<br>निगल रही हैं<br>अंतिम दृश्य को<br><br>
भविष्य को उँगली पर रखता है ज्योतिषि<br>बनिया तिजोरी में,<br>::::पकड़ा गया था जिस चोरी में<br>तीन साल पहले अज्ञानसिंह, उस का अब भेद<br>खुला<br><br>
खुला-खुला लगता है, वैसे, पर सचमुच<br>डरा-डरा,<br>हरात-भरा लगता है, सौवाँ, मैंने क्या<br>ठेका ले रखा है बाकी निन्यानवे का<br>फेर<br>देर वैसे भी हो चुकी, चौसर की तरह<br>बिछे<br>नक्शे पर बैठ गया कौवों का प्रसंग। पृथ्वी का<br>हिसाब<br>हो रहा है--<br>मुझको इसी बात पर काँव-काँव करने की छूट दो,<br>क्षमा करो,<br>छोड़ दो,<br>रिहाई को बचा ही क्या अब, एक<br>और ठन्डस्नान,<br>एक<br>और मोहभंग<br>सबकुछ प्रतिकूल था, तब भी सम्भव किया मैंने<br>कविता को<br>और<br>कुछ अपने आपको, <br> धन्यवाद!<br><br>
तोड़ता है यथास्थिति, मनसब नहीं बल्कि<br>गलत बीज<br>टूटता है सब कुछ<br>बस धनुष नहीं टूटता<br>तौला गया था जो सोने से<br>क्या होगा रोने से, यह कहकर, जमुहाई<br>लेती हुई<br>सोने को जाती है विधवा<br>जिसे<br>ठोंकता है दिन-भर<br>चुंगी का दरोगा, भैंसों का दलाल।<br><br>
देखता है काल या कि देखता भी नहीं है?<br>मुझको<br>सन्देह है,<br>इसको सुजाक, उसको मधुमेह है।<br><br>
बार-बार पैदा होती है आशंका, बार-बार मरता है<br>वंश।<br><br>
क्या मैं इसी तरह, बिल्कुल बेलाग, यहाँ से<br>गुज़र जाऊँ ?<br>हे ईश्वर ! मुझको क्षमा करना, निर्णय<br>कल लूँगा, जब<br>
निर्णय हो चुका होगा।
</poem>
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