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|संग्रह= मधुरिमा / महेन्द्र भटनागर
}}
{{KKCatKavita}}{{KKCatGeet}}<poem>सचमुच, तुम कितनी भोली हो !<br><BR>
संकेत तुम्हारे नहीं समझ में आते,<br>मधु-भाव हृदय के ज्ञात नहीं हो पाते,<br>:तुम तो अपने में ही डूबी<BR>:नभ-परियों की हमजोली हो !<br><BR>:तुम एक घड़ी भी ठहर नहीं पाती हो,<br>फिर भी जाने क्यों मन में बस जाती हो,<br>:वायु बसंती बन, मंथर-गति<BR>:से जंगल-जंगल डोली हो !<br/poem>