|संग्रह=राग-संवेदन / महेन्द्र भटनागर
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{{KKCatKavita}}जीवन<brpoem>जीवन कोई पुस्तक तो नहीं<br>कि जिसे<br>सोच-समझ कर<br>योजनाबद्व ढंग से<br>लिखा जाए / रचा जाए! <br> उसकी विषयवस्तु को _<br>क्रमिक अधयायों में <br> सावधानी से बाँटा जाए, <br> मर्मस्पर्शी प्रसंगों को छाँटा जाए! <br> स्व-अनुभव से, अभ्यास से<br>सुन्दर व कलात्मक आकार में<br>ढाला जाए, <br> शैथिल्य और बोझिलता से बचा कर<br>चमत्कार की चमक में उजाला जाए! <br> जीवन की कथा<br>स्वत: बनती-बिगड़ती है<br>पूर्वापर संबंध नहीं गढ़ती है! <br> कब क्या घटित हो जाए<br>कब क्या बन-सँवर जाए, <br> कब एक झटके में<br>सब बिगड़ जाए! <br> जीवन के कथा-प्रवाह में<br>कुछ भी पूर्व-निश्चित नहीं, <br> अपेक्षित-अनपेक्षित नहीं, <br> कोई पूर्वाभास नहीं, <br> आयास-प्रयास नहीं! <br> ख़ूब सोची-समझी<br>शतरंज की चालें<br>दूषित संगणक की तरह<br>चलने लगती हैं, <br> नियंत्रक को ही <br> छलने लगती हैं<br>जीती बाज़ी <br> हार में बदलने लगती है! <br> या अचानक<br>अदृश्य हुआ वर्तमान<br>पुन: उसी तरतीब से<br>उतर आता है<br>भूकम्प के परिणाम की तरह! <br>
अपने पूर्ववत् रूप-नाम की तरह!
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