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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार: [[=जोश मलीहाबादी]][[Category:जोश मलीहाबादी]]}}{{KKCatGhazal}}<poem>[[Category:कविताएँ]]ये दिन बहार के अब के भी रास न आ सके [[Category:गज़ल]]कि ग़ुंचे खिल तो सके खिल के मुस्कुरा न सके
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*मेरी तबाही दिल पर तो रहम खा न सकी जो रोशनी में रहे रोशनी को पा न सके
ये दिन बहार के अब के भी रास जाने आह! कि उन आँसूओं पे क्या गुज़री जो दिल से आँख तक आये मिश्गाँ तक सके <br>कि ग़ुंचे खिल तो सके खिल के मुस्कुरा न सके <br><br>
मेरी तबाही दिल पर रहें ख़ुलूस-ए-मुहब्बत के हादसात जहाँ मुझे तो रहम खा न सकी <br>जो रौशनी में रहे रौशनी को पा क्या मेरे नक़्श-ए-क़दम मिटा न सके <br><br>
न जाने आह! कि उन आँसूओं पे करेंगे मर के बक़ा-ए-दवाम क्या गुज़री <br>हासिल जो दिल से आँख तक आये मिश्गाँ तक आ ज़िंदा रह के मुक़ाम-ए-हयात पा न सके <br><br>
रहें ख़ुलूस-ए-मुहब्बत के हादसात जहाँ <br>मुझे तो क्या मेरे नक़्श-ए-क़दम मिटा न सके<br><br>  करेंगे मर के बक़ा-ए-दवाम क्या हासिल <br>जो ज़िंदा रह के मुक़ाम-ए-हयात पा न सके <br><br> नया ज़माना बनाने चले थे दीवाने <br>नई ज़मीं, नया आसमाँ बना न सके <br><br/poem>
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