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लेखक: [[रामधारी सिंह "दिनकर"]]
[[Category:रामधारी सिंह "दिनकर"]]
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
रथ सजा, भेरियां घमक उठीं, गहगहा उठा अम्बर विशाल ,<br>
कूदा स्यन्दन पर गरज कर्ण ज्यों उठे गरज क्रोधान्ध काल .<br>
बज उठे रोर कर पटह-कम्बु, उल्लसित वीर कर उठे हूह ,<br>
उच्छल सागर-सा चला कर्ण को लिये क्षुब्ध सैनिक समूह .<br>
<br>
अङगार-वृष्टि पा धधक उठ जिस तरह शुष्क कानन का तृण ,<br>
सकता न रोक शस्त्री की गति पुञ्जित जैसे नवनीत मसृण .<br>
यम के समक्ष जिस तरह नहीं चल पाता बध्द मनुज का वश ,<br>
हो गयी पाण्डवों की सेना त्योंही बाणों से विध्द, विवश .<br>
<br>
भागने लगे नरवीर छोड वह दिशा जिधर भी झुका कर्ण ,<br>
भागे जिस तरह लवा का दल सामने देख रोषण सुपर्ण !<br>
'रण में क्यों आये आज ?' लोग मन-ही-मन में पछताते थे ,<br>
दूर से देखकर भी उसको, भय से सहमे सब जाते थे .<br>
<br>
काटता हुआ रण-विपिन क्षुब्ध, राधेय गरजता था क्षण-क्षण .<br>
सुन-सुन निनाद की धमक शत्रु का, व्यूह लरजता था क्षण-क्षण .<br>
अरि की सेना को विकल देख, बढ चला और कुछ समुत्साह ;<br>
कुछ और समुद्वेलित होकर, उमडा भुज का सागर अथाह .<br>
<br>
गरजा अशङक हो कर्ण, ''शल्य ! देखो कि आज क्या करता हूं ,<br>
कौन्तेय-कृष्ण, दोनों को ही, जीवित किस तरह पकडता हूं .<br>
<br>
बस, आज शाम तक यहीं सुयोधन का जय-तिलक सजा करके ,<br>
लौटेंगे हम, दुन्दुभि अवश्य जय की, रण-बीच बजा करके .<br>
<br>
इतने में कुटिल नियति-प्रेरित पड ग़ये सामने धर्मराज ,<br>
टूटा कृतान्त-सा कर्ण, कोक पर पडे टूट जिस तरह बाज .<br>
लेकिन, दोनों का विषम युध्द, क्षण भर भी नहीं ठहर पाया ,<br>
सह सकी न गहरी चोट, युधिष्ठर की मुनि-कल्प, मृदुल काया .<br>
<br>
भागे वे रण को छोड, क़र्ण ने झपट दौडक़र गहा ग्रीव ,<br>
कौतुक से बोला, ''महाराज ! तुम तो निकले कोमल अतीव .<br>
हां, भीरु नहीं, कोमल कहकर ही, जान बचाये देता हूं .<br>
आगे की खातिर एक युक्ति भी सरल बताये देता हूं .<br>
<br>
''हैं विप्र आप, सेविये धर्म, तरु-तले कहीं, निर्जन वन में ,<br>
क्या काम साधुओं का, कहिये, इस महाघोर, घातक रण में ?<br>
मत कभी क्षात्रता के धोखे, रण का प्रदाह झेला करिये,<br>
जाइये, नहीं फिर कभी गरुड क़ी झपटों से खेला करिये .''<br>
<br>
भाग विपन्न हो समर छोड ग्लानि में निमज्जित धर्मराज ,<br>
सोचते, 'कहेगा क्या मन में जानें, यह शूरों का समाज ?<br>
प्राण ही हरण करके रहने क्यों नहीं हमारा मान दिया ?<br>
आमरण ग्लानि सहने को ही पापी ने जीवन-दान दिया .'<br>
<br>
समझे न हाय, कौन्तेय ! कर्ण ने छोड दिये, किसलिए प्राण ,<br>
गरदन पर आकर लौट गयी सहसा, क्यों विजयी की कृपाण ?<br>
लेकिन, अदृश्य ने लिखा, कर्ण ने वचन धर्म का पाल किया,<br>
खड्ग का छीन कर ग्रास, उसे मां के अञ्चल में डाल दिया .<br>
<br>
कितना पवित्र यह शील ! कर्ण जब तक भी रहा खडा रण में ,<br>
चेतनामयी मां की प्रतिमा घूमती रही तब तक मन में .<br>
सहदेव, युधिष्ठर, नकुल, भीम को बार-बार बस में लाकर,<br>
कर दिया मुक्त हंस कर उसने भीतर से कुछ इङिगत पाकर .<br>
<br>
देखता रहा सब श्लय, किन्तु, जब इसी तरह भागे पवितन ,<br>
बोला होकर वह चकित, कर्ण की ओर देख, यह परुष वचन ,<br>
''रे सूतपुत्र ! किसलिए विकट यह कालपृष्ठ धनु धरता है ?<br>
मारना नहीं है तो फिर क्यों, वीरों को घेर पकडता है ?''<br>
<br>
''संग्राम विजय तू इसी तरह सन्ध्या तक आज करेगा क्या ?<br>
मारेगा अरियों को कि उन्हें दे जीवन स्वयं मरेगा क्या ?<br>
रण का विचित्र यह खेल, मुझे तो समझ नहीं कुछ पडता है ,<br>
कायर ! अवश्य कर याद पार्थ की, तू मन ही मन डरता है .''<br>
<br>
हंसकर बोला राधेय, ''शल्य, पार्थ की भीति उसको होगी ,<br>
क्षयमान्, क्षनिक, भंगुर शरीर पर मृषा प्रीति जिसको होगी .<br>
इस चार दिनों के जीवन को, मैं तो कुछ नहीं समझता हूं ,<br>
करता हूं वही, सदा जिसको भीतर से सही समझता हूं .<br>
<br>
''पर ग्रास छीन अतिशय बुभुक्षु, अपने इन बाणों के मुख से ,<br>
होकर प्रसन्न हंस देता हूं, चञ्चल किस अन्तर के सुख से ;<br>
यह कथा नहीं अन्त:पुर की, बाहर मुख से कहने की है ,<br>
यह व्यथा धर्म के वर-समान, सुख-सहित, मौन सहने की है .<br>
<br>
''सब आंख मूंद कर लडते हैं, जय इसी लोक में पाने को ,<br>
पर, कर्ण जूझता है कोई, ऊंचा सध्दर्म निभाने को ,<br>
सबके समेत पङिकल सर में, मेरे भी चरण पडेंग़े क्या ?<br>
ये लोभ मृत्तिकामय जग के, आत्मा का तेज हरेंगे क्या ?
[[Category:रामधारी सिंह "दिनकर"]]
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रथ सजा, भेरियां घमक उठीं, गहगहा उठा अम्बर विशाल ,<br>
कूदा स्यन्दन पर गरज कर्ण ज्यों उठे गरज क्रोधान्ध काल .<br>
बज उठे रोर कर पटह-कम्बु, उल्लसित वीर कर उठे हूह ,<br>
उच्छल सागर-सा चला कर्ण को लिये क्षुब्ध सैनिक समूह .<br>
<br>
अङगार-वृष्टि पा धधक उठ जिस तरह शुष्क कानन का तृण ,<br>
सकता न रोक शस्त्री की गति पुञ्जित जैसे नवनीत मसृण .<br>
यम के समक्ष जिस तरह नहीं चल पाता बध्द मनुज का वश ,<br>
हो गयी पाण्डवों की सेना त्योंही बाणों से विध्द, विवश .<br>
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भागने लगे नरवीर छोड वह दिशा जिधर भी झुका कर्ण ,<br>
भागे जिस तरह लवा का दल सामने देख रोषण सुपर्ण !<br>
'रण में क्यों आये आज ?' लोग मन-ही-मन में पछताते थे ,<br>
दूर से देखकर भी उसको, भय से सहमे सब जाते थे .<br>
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काटता हुआ रण-विपिन क्षुब्ध, राधेय गरजता था क्षण-क्षण .<br>
सुन-सुन निनाद की धमक शत्रु का, व्यूह लरजता था क्षण-क्षण .<br>
अरि की सेना को विकल देख, बढ चला और कुछ समुत्साह ;<br>
कुछ और समुद्वेलित होकर, उमडा भुज का सागर अथाह .<br>
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गरजा अशङक हो कर्ण, ''शल्य ! देखो कि आज क्या करता हूं ,<br>
कौन्तेय-कृष्ण, दोनों को ही, जीवित किस तरह पकडता हूं .<br>
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बस, आज शाम तक यहीं सुयोधन का जय-तिलक सजा करके ,<br>
लौटेंगे हम, दुन्दुभि अवश्य जय की, रण-बीच बजा करके .<br>
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इतने में कुटिल नियति-प्रेरित पड ग़ये सामने धर्मराज ,<br>
टूटा कृतान्त-सा कर्ण, कोक पर पडे टूट जिस तरह बाज .<br>
लेकिन, दोनों का विषम युध्द, क्षण भर भी नहीं ठहर पाया ,<br>
सह सकी न गहरी चोट, युधिष्ठर की मुनि-कल्प, मृदुल काया .<br>
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भागे वे रण को छोड, क़र्ण ने झपट दौडक़र गहा ग्रीव ,<br>
कौतुक से बोला, ''महाराज ! तुम तो निकले कोमल अतीव .<br>
हां, भीरु नहीं, कोमल कहकर ही, जान बचाये देता हूं .<br>
आगे की खातिर एक युक्ति भी सरल बताये देता हूं .<br>
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''हैं विप्र आप, सेविये धर्म, तरु-तले कहीं, निर्जन वन में ,<br>
क्या काम साधुओं का, कहिये, इस महाघोर, घातक रण में ?<br>
मत कभी क्षात्रता के धोखे, रण का प्रदाह झेला करिये,<br>
जाइये, नहीं फिर कभी गरुड क़ी झपटों से खेला करिये .''<br>
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भाग विपन्न हो समर छोड ग्लानि में निमज्जित धर्मराज ,<br>
सोचते, 'कहेगा क्या मन में जानें, यह शूरों का समाज ?<br>
प्राण ही हरण करके रहने क्यों नहीं हमारा मान दिया ?<br>
आमरण ग्लानि सहने को ही पापी ने जीवन-दान दिया .'<br>
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समझे न हाय, कौन्तेय ! कर्ण ने छोड दिये, किसलिए प्राण ,<br>
गरदन पर आकर लौट गयी सहसा, क्यों विजयी की कृपाण ?<br>
लेकिन, अदृश्य ने लिखा, कर्ण ने वचन धर्म का पाल किया,<br>
खड्ग का छीन कर ग्रास, उसे मां के अञ्चल में डाल दिया .<br>
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कितना पवित्र यह शील ! कर्ण जब तक भी रहा खडा रण में ,<br>
चेतनामयी मां की प्रतिमा घूमती रही तब तक मन में .<br>
सहदेव, युधिष्ठर, नकुल, भीम को बार-बार बस में लाकर,<br>
कर दिया मुक्त हंस कर उसने भीतर से कुछ इङिगत पाकर .<br>
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देखता रहा सब श्लय, किन्तु, जब इसी तरह भागे पवितन ,<br>
बोला होकर वह चकित, कर्ण की ओर देख, यह परुष वचन ,<br>
''रे सूतपुत्र ! किसलिए विकट यह कालपृष्ठ धनु धरता है ?<br>
मारना नहीं है तो फिर क्यों, वीरों को घेर पकडता है ?''<br>
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''संग्राम विजय तू इसी तरह सन्ध्या तक आज करेगा क्या ?<br>
मारेगा अरियों को कि उन्हें दे जीवन स्वयं मरेगा क्या ?<br>
रण का विचित्र यह खेल, मुझे तो समझ नहीं कुछ पडता है ,<br>
कायर ! अवश्य कर याद पार्थ की, तू मन ही मन डरता है .''<br>
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हंसकर बोला राधेय, ''शल्य, पार्थ की भीति उसको होगी ,<br>
क्षयमान्, क्षनिक, भंगुर शरीर पर मृषा प्रीति जिसको होगी .<br>
इस चार दिनों के जीवन को, मैं तो कुछ नहीं समझता हूं ,<br>
करता हूं वही, सदा जिसको भीतर से सही समझता हूं .<br>
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''पर ग्रास छीन अतिशय बुभुक्षु, अपने इन बाणों के मुख से ,<br>
होकर प्रसन्न हंस देता हूं, चञ्चल किस अन्तर के सुख से ;<br>
यह कथा नहीं अन्त:पुर की, बाहर मुख से कहने की है ,<br>
यह व्यथा धर्म के वर-समान, सुख-सहित, मौन सहने की है .<br>
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''सब आंख मूंद कर लडते हैं, जय इसी लोक में पाने को ,<br>
पर, कर्ण जूझता है कोई, ऊंचा सध्दर्म निभाने को ,<br>
सबके समेत पङिकल सर में, मेरे भी चरण पडेंग़े क्या ?<br>
ये लोभ मृत्तिकामय जग के, आत्मा का तेज हरेंगे क्या ?
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