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Kavita Kosh से
|संग्रह=ओ पवित्र नदी / केशव
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भाषा सुनती नहीं
प्रेम को भी
तर्क के तराजू में
हद-से हद
स्मृति के तहखाने
प्रेम नहीं है
प्रेम नहीं है
भाषा को
अपने-अपने अक्सों के लिए
चुनना
या उंगलियों के पोरों से
उमड़ती पुकार
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