{{KKRachna
|रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध
|संग्रह=तार सप्तक / अज्ञेय
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<poem>
घनी रात, बादल रिमझिम हैं, दिशा मूक, निस्तब्ध वनंतर
व्यापक अंधकार में सिकुड़ी सोयी नर की बस्ती भयकर
है निस्तब्ध गगन, रोती-सी सरिता-धार चली गहराती,
जीवन-लीला को समाप्त कर मरण-सेज पर है कोई नर
बहुत संकुचित छोटा घर है, दीपालोकित फिर भी धुंधला,
वधू मूर्छिता, पिता अर्ध-मृत, दुखिता माता स्पंदन-हीन
घनी रात, बादल रिमझिम हैं, दिशा मूक, कवि का मन गीला
"ये सब क्षनिक, क्षनिक जीवन है, मानव जीवन है क्षण-भंगुर" ।
घनी रातऐसा मत कह मेरे कवि, बादल रिमझिम हैंइस क्षण संवेदन से हो आतुरजीवन चिंतन में निर्णय पर अकस्मात मत आ, दिशा मूक, निस्तब्ध वनंतर<br>ओ निर्मल !व्यापक अंधकार इस वीभत्स प्रसंग में सिकुड़ी सोयी नर की बस्ती भयकर<br>रहो तुम अत्यंत स्वतंत्र निराकुलहै निस्तब्ध गगन, रोतीभ्रष्ट ना होने दो युग-सी सरिता-धार चली गहराती,<br>युग की सतत साधना महाआराधनाजीवनइस क्षण-लीला को समाप्त कर मरणभर के दुख-सेज पर है कोई नर<br>बहुत संकुचित छोटा घर हैभार से, दीपालोकित फिर भी धुंधलारहो अविचिलित,<br>रहो अचंचलवधू मूर्छिता, पिता अर्धअंतरदीपक के प्रकाश में विणत-मृत, दुखिता माता स्पंदन-हीन<br>प्रणत आत्मस्य रहो तुमघनी रात, बादल रिमझिम हैं, दिशा मूक, कवि जीवन के इस गहन अटल के लिये मृत्यु का मन गीला<br>"ये सब क्षनिक, क्षनिक जीवन है, मानव जीवन है क्षण-भंगुर" अर्थ कहो तुम ।<br><br>
ऐसा मत कह मेरे कवि, इस क्षण संवेदन से हो आतुर<br>जीवन चिंतन में निर्णय पर अकस्मात मत आ, ओ निर्मल !<br>इस वीभत्स प्रसंग में रहो तुम अत्यंत स्वतंत्र निराकुल<br>भ्रष्ट ना होने दो युग-युग की सतत साधना महाआराधना<br>इस क्षण-भर के दुख-भार से, रहो अविचिलित, रहो अचंचल<br>अंतरदीपक के प्रकाश में विणत-प्रणत आत्मस्य रहो तुम<br>जीवन के इस गहन अटल के लिये मृत्यु का अर्थ कहो तुम ।<br><br> क्षण-भंगुरता के इस क्षण में जीवन की गति, जीवन का स्वर<br>दो सौ वर्ष आयु होती तो क्या अधिक सुखी होता नर?<br>इसी अमर धारा के आगे बहने के हित ये सब नश्वर,<br>सृजनशील जीवन के स्वर में गाओ मरण-गीत तुम सुंदर<br>तुम कवि हो, यह फैल चले मृदु गीत निर्बल मानव के घर-घर<br>ज्योतित हों मुख नवम आशा से, जीवन की गति, जीवन का स्वर ।<br><br/poem>