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|रचनाकार=शीन काफ़ निज़ाम
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<poem>
फ़र्द बाक़ी हैं ख़ानदान कहाँ
ढूँढ़ते हैं मकीं मकान कहाँ

अब ज़मीनों प' आसमान कहाँ
धूप है सर प' सायबान कहाँ

अब हवाओं में हम मुअल्लक़ हैं
अपने होने का अब गुमान कहाँ

नापता हूँ नज़र से ऊँचाई
पर सलामत है पर उड़ान कहाँ

तुम हो ख़ामोश मैं भी गुमसुम हूँ
अब कोई अपने दर्मियान कहाँ

कागज़ी नाव है भरोसा क्या
इन जहाज़ों के बादबान कहाँ
</poem>
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