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रश्मिरथी / सप्तम सर्ग / भाग 4

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लेखक: [[रामधारी सिंह "दिनकर"]]
[[Category:रामधारी सिंह "दिनकर"]]

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दिनमणि पश्चिम की ओर ढले देखते हुए संग्राम घोर ,<br>
गरजा सहसा राधेय, न जानें, किस प्रचण्ड सुख में विभोर .<br>
&#39;&#39;सामने प्रकट हो पलय ! फाड तुझको मैं राह बनाऊंगा ,<br>
जाना है तो तेरे भीतर संहार मचाता जाऊंगा .&#39;&#39;<br>
<br>
&#39;&#39;क्या धमकाता है काल ? अरे, आ जा, मुट्ठी में बन्द करूं .<br>
छुट्टी पाऊं, तुझको समाप्त कर दूं, निज को स्वच्छन्द करूं .<br>
ओ शल्य ! हयों को तेज क़रो, ले चलो उडाकर शीघ्र वहां ,<br>
गोविन्द-पार्थ के साथ डटे हों चुनकर सारे वीर जहां .&#39;&#39;<br>
<br>
&#39;&#39;हो शास्त्रों का झन-झन-निनाद, दन्तावल हों चिंग्घार रहे ,<br>
रण को कराल घोषित करके हों समरशूर हुङकार रहे ,<br>
कटते हों अगणित रुण्ड-मुण्ड, उठता होर् आत्तनाद क्षण-क्षण ,<br>
झनझना रही हों तलवारें; उडते हों तिग्म विशिख सन-सन .&#39;&#39;<br>
<br>
&#39;&#39;संहार देह धर खडा जहां अपनी पैंजनी बजाता हो ,<br>
भीषण गर्जन में जहां रोर ताण्डव का डूबा जाता हो .<br>
ले चलो, जहां फट रहा व्योम, मच रहा जहां पर घमासान ,<br>
साकार ध्वंस के बीच पैठ छोडना मुझे है आज प्राण .&#39;&#39;<br>
<br>
समझ में शल्य की कुछ भी न आया ,<br>
हयों को जाेर से उसने भगाया .<br>
निकट भगवान् के रथ आन पहुंचा ,<br>
अगम, अज्ञात का पथ आन पहुंचा ?<br>
<br>
अगम की राह, पर, सचमुच, अगम है ,<br>
अनोखा ही नियति का कार्यक्रम है .<br>
न जानें न्याय भी पहचानती है ,<br>
कुटिलता ही कि केवल जानती है ?<br>
<br>
रहा दीपित सदा शुभ धर्म जिसका ,<br>
चमकता सूर्य-सा था कर्म जिसका ,<br>
अबाधित दान का आधार था जो ,<br>
धरित्री का अतुल श्रृङगार था जो ,<br>
<br>
क्षुधा जागी उसी की हाय, भू को ,<br>
कहें क्या मेदिनी मानव-प्रसू को ?<br>
रुधिर के पङक में रथ को जकड क़र ,<br>
गयी वह बैठ चक्के को पकड क़र .<br>
<br>
लगाया जोर अश्वों ने न थोडा ,<br>
नहीं लेकिन, मही ने चक्र छोडा .<br>
वृथा साधन हुए जब सारथी के ,<br>
कहा लाचार हो उसने रथी से .<br>
<br>
&#39;&#39;बडी राधेय ! अद्भुत बात है यह .<br>
किसी दु:शक्ति का ही घात है यह .<br>
जरा-सी कीच में स्यन्दन फंसा है ,<br>
मगर, रथ-चक्र कुछ ऐसा धंसा है ;&#39;&#39;<br>
<br>
&#39;&#39;निकाले से निकलता ही नहीं है ,<br>
हमारा जोर चलता ही नहीं है ,<br>
जरा तुम भी इसे झकझोर देखो ,<br>
लगा अपनी भुजा का जोर देखो .&#39;&#39;<br>
<br>
हसा राधेय कर कुछ याद मन में ,<br>
कहा, &#39;&#39;हां सत्य ही, सारे भुवन में ,<br>
विलक्षण बात मेरे ही लिए है ,<br>
नियति का घात मेरे ही लिए है .<br>
<br>
&#39;&#39;मगर, है ठीक, किस्मत ही फंसे जब ,<br>
धरा ही कर्ण का स्यन्दन ग्रसे जब ,<br>
सिवा राधेय के पौरुष प्रबल से ,<br>
निकाले कौन उसको बाहुबल से ?&#39;&#39;<br>
<br>
उछलकर कर्ण स्यन्दन से उतर कर ,<br>
फंसे रथ-चक्र को भुज-बीच भर कर ,<br>
लगा ऊपर उठाने जोर करके ,<br>
कभी सिधा, कभी झकझोर करके .<br>
<br>
मही डोली, सलिल-आगार डोला ,<br>
भुजा के जोर से संसार डोला<br>
न डोला, किन्तु, जो चक्का फंसा था ,<br>
चला वह जा रहा नीचे धंसा था .<br>
<br>
विपद् में कर्ण को यों ग्रस्त पाकर ,<br>
शरासनहीन, अस्त-व्यस्त पाकर ,<br>
जगा कर पार्थ को भगवान् बोले _<br>
&#39;&#39;खडा है देखता क्या मौन, भोले ?&#39;&#39;<br>
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