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::जो पद से ठुकराती है।
आज कठिन नरमेघ! सभ्यता
ने थे क्या विषकर विषधर पाले!
लाल कीच ही नहीं, रुधिर के
दौड़ रहे हैं नद - नाले।
यह कोलाहल शमित करेगी
किसी बुद्ध की ही बानी।
 
'''रचनाकाल: १९४१'''
</poem>
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