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|रचनाकार=शीन काफ़ निज़ाम
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<poem>
मकानों के थे या ज़मानों के थे
अजब फ़ासले दर्मियानों के थे

सफ़र यूँ तो सब आसमानों के थे
क़रीने मगर कैदखानों क़ैद के थे

थे वहमों के कुछ-कुछ गुमानों के थे
सभी अपने-अपने ठिकानों के थे

खुली आँख तो सामने कुछ न था
वो मंज़र तो सारे उड़ानों के थे

मुसाफ़िर की नज़रें बुलंदी प' थीं
मगर रास्ते सब ढलानों के थे

उफ़ुक़ ज़ेरे पा' था फ़लक सरनगूं
तिलिस्मात कैसे तकानों के थे

पकड़ना उन्हें कुछ ज़रूरी न था
परिंदे सभी आशियानों के थे

उन्हें ढूँढने तुम कहाँ चल दिए
वो किरदार तो दास्तानों के थे
</poem>
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