|संग्रह=साकेत / मैथिलीशरण गुप्त
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{{KKPageNavigation<font size|पीछे=3 color|आगे=olive>'''साकेत'''</font>मैथिलीशरण गुप्त / प्रथम सर्ग / पृष्ठ १|सारणी=साकेत / मैथिलीशरण गुप्त}}<brpoem><br> '''राम, तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है।'''<br>
'''कोई कवि बन जाय, सहज संभाव्य है। '''
लेखकरचनाकार: श्री मैथिलीशरण गुप्त <br>
== समर्पण ==
<poem>
पितः, आज उसको हुए अष्टाविंशति वर्ष,
दीपावली - प्रकाश में जब तुम गए सहर्ष।
भूल गए बहु दुखदुःख-सुख, निरानंद-आनंद;शैशव में तुमसे सुने याद रहे ये छंद -- ::"हम चाकर रघुवर रघुवीर के, पटौ लिखौ दरबार;::अब तुलसी का होहिंगे नर के मनसबदार?::तुलसी अपने राम को रीझ भजो कै खीज,::उलटो-सूधो ऊगि है खेत परे को बीज।::बनें सो रघुवर सों बनें, कै बिगरे भरपूर;::तुलसी बनें जो और सों, ता बनिबे में घूर।धूर।::चातक सुतहिं सिखावहीं, आन धर्म जिन लेहु;,::मेरे कुल की बानि है स्वाँति बूँद सों नेहु।"
स्वयं तुम्हारा वह कथन भूला नहीं ललाम-
"वहां वहाँ कल्पना भी सफल, जहां जहाँ हमारे राम।"
तुमने इस जन के लिए क्या क्या किया न हाय!
बना तुम्हारी तृप्ति का मुझसे कौन उपाय?
उसके फल का पिंड यह लो निज प्रभु गुणगान।
आज श्राद्ध के दिन तुम्हें, श्रद्धा-भक्ति-समेत,
अर्पण करता हूं हूँ यही निज कवि-धन 'साकेत'।
:::::अनुचर-
:::::मैथिलीशरण
दीपावली 1988
"परित्राणाय साधूनां, विनाशाय च दुष्कृतम्दुष्कृताम्,
धर्म संस्थापनार्थाय, सम्भवामि युगे युगे।"
"इदं पवित्रं पापघ्नं पुण्य पुण्यं वेदैश्च सम्मितम्
यः पठेद्रामचरितं सर्वपापैः प्रमुच्यते।"
रस विसेष जाना तिन्ह नाहीं।"
"भरि लोचन विलोक विलोकि अवधेसा,
तब सुनिहों निरगुन उपदेसा।"
== निवेदन ==
आचार्य पूज्य द्विवेदीजी महाराज के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करना मानो उनकी कृपा मूल्य निर्धारित करने की ढिठाई करना है। वे मुझे न अपनाते तो मैं आज इस प्रकार, आप लोगों के समझ खड़े होने में भी समर्थ होता या नहीं, कौन कह सकता है।-
''करते तुलसीदास भी कैसे मानस-नाद?--''
''महावीर का यदि उन्हें मिलता नहीं प्रसाद। ''
समर्थ सहायकों को पाकर भी अपने दोषों के लिए मैं उनकी ओट नहीं ले सकता। किसी की सहायता से लाभ उठा ले जाने में भी तो एक क्षमता चाहिए। अपने मन के अनुकूल होते हुए भी कोई कोई बात कहकर भी मैं नहीं कह सका। जैसे नवम सर्ग में ऊर्मिला का चित्रकूट-संबंधी यह संस्मरण-
''मंझली मां मँझली माँ से मिल गई क्षमा तुम्हें क्या नाथ?''''पीठ ठोककर ठोक कर ही प्रिये, मानें, मां माँ के हाथ।''
परंतु इसी के साथ ऐसा भी प्रसंग आया है कि मुझे स्वयं अपने मन के प्रतिकूल ऊर्मिला का यह कथन लिखना पड़ा है-
मन ने चाहा कि इसे यों कर दिया जाए -
''मेरे मानसे मानस के हंस, आज वनचारी। ''
परंतु इसे मेरे ब्रह्म ने स्वीकार नहीं किया। क्यों, मैं स्वयं नहीं जानता!
यों तो "साकेत" दो वर्ष पूर्व ही पूरा हो चुका था; परंतु नवम सर्ग में तब भी कुछ शेष रह गया था और मेरी भावना के अनुसार आज भी यह अधूरा है। यह भी अच्छा ही है। मैं चाहता था कि मेरे साहित्यिक जीवन के साथ ही "साकेत" की समाप्ति हो। परंतु जब ऐसा नहीं हो सका, तब ऊर्मिला की निम्नोक्त आशा-निराशामयी उक्तियों के साथ उनका क्रम बनाए रखना ही मुझे उचित जान पड़ता है-
''कमल, तुम्हारा दिन है , और कुमुद, यामिनी तुम्हारी है,''''कोई हताश क्यों हो, आती सबती सब की समान वारी है। ''
ध्न्य कमल, दिन जिसके, धन्य कुमुदल कुमुद, रात साथ में जिसके, ;दिन और रात दोनों , होते हैं हाय! हाथ में किसके?
- मैथिलीशरण गुप्त 1988
जय देवमंदिर- देहली ,
::सम-भाव से जिस पर चढ़ी,--
::::नृप-हेममुद्रा और रंक-वराटिका।
विश्व में रमे हुए नहीं सभी कहीं हो क्या?
तब मैं निरीश्वर हूँ, ईश्वर क्षमा करे;
तुम न रमो तो मन तुममें तुम में रमा करे। '''मंगलाचरण'''
::'''मंगलाचरण'''
जयत कुमार-अभियोग-गिरा गौरी-प्रति,
::स - गण गिरीश जिसे सुन मुसकाते हैं-
"देखो अंब, ये हेरंब मानस के तीर पर
::तुंदिल शरीर एक ऊधम मचाते हैं।
गोद भरे मोदक धरे हैं, सविनोद उन्हें
::सूंड़ से उठाके मुझे देने को दिखाते हैं,
देते नहीं, कंदुक-सा ऊपर उछालते हैं,
::ऊपर ही झेल कर, खेल कर खाते हैं!" '''श्रीगणेशायनमः''' ><poem>[[साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / प्रथम सर्ग / पृष्ठ १]]