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अथ षष्ठो अध्याय
<span class="upnishad_mantra">
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः॥६- १॥
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फल करमन कौ तजि कर्म करै,
सत योगी वही, सन्यासी वही.
बस कर्म तजै, तिन योगी नहीं,
अग्नि तजि के, संन्यासी नहीं
<span class="upnishad_mantra">यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन॥६- २॥</span>
जिन नाहीं तजै संकल्पन कौ,
तिन योगी वे होत कदापि नहीं,
अथ लोंग कहत संन्यास जिसे
अर्जन! तेहि योग ही जानि सही
<span class="upnishad_mantra">आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते॥६- ३॥</span>
जिन योग में चाह घनी तिनकौ,
निष्काम करम ही हेतु कह्यो,
यहि चाह विहीन को मारग ही,
कल्यान कौ एकही हेतु रह्यो
<span class="upnishad_mantra">यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते॥६- ४॥</span>
जेहि काल न तो विषयन मांहीं,
न ही करमन में आसक्त रहें ,
तेहि कालहिं ज्ञानी पुरुषंन कौ
ज्ञानी जन योगारूढ़ कहैं
<span class="upnishad_mantra">उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥६- ५॥</span>
जीवात्मा आपु ही आपुनि कौ,
उद्धार करै, संहार करै.
यहि आपुनि बन्धु, रिपु अपनों ,
जो कर्म करौ सों विचार करै
<span class="upnishad_mantra">बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्॥६- ६॥</span>
मन इन्द्रिन कौ जिन जीत लीऔ,
तिन आपुनि आप कौ मित्र भयो .
यदि हारि गयौ मन इन्द्रिन सों,
तिन आपुहि आपु को शत्रु भयो
<span class="upnishad_mantra">जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः॥६- ७॥</span>
जिन शीत ताप सुख दुखन में
अपमान व् मान समान लगे.
तिन जीत लियो परमेश प्रभो,
तिनकौ ही ब्रह्म में ध्यान लगे
<span class="upnishad_mantra">ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः॥६- ८॥</span>
जिन ज्ञान सों तृप्त हैं अंतर्मन
लियौ जीत विकारन इन्द्रिन कौ.
जिन पाथर सुवरन भेद नाहीं,
अस योगी वही सांचे मन कौ
<span class="upnishad_mantra">सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते॥६- ९॥</span>
जिन मित्र सुह्रद बैरी बांधव,
साधुन पापिन में भेद नाहीं,
तिन सम्यक बुद्ध प्रबुद्धन कौ ,
प्रभु होत सुलभ संदेह नाहीं
<span class="upnishad_mantra">योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः॥६- १०॥</span>
जिन तन-मन इन्द्रिन जीत लियौ
जिन कामना संग्रह रीत लियौ ,
तिन योगी निरंतर ध्यान कियौ
एकाकी निवास प्रधान कियौ
<span class="upnishad_mantra">शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः।नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्॥६- ११॥</span>
अति पावन भूमि कुशा आसन
मृग छाला बिछी तेहि ऊपर हो.
अति ऊँचो ना ही अति नीचो हो.
अस आसन योगी स्थिर हो
<span class="upnishad_mantra">तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये॥६- १२॥</span>
तस आसन बैठ के साधे मना.
अस चिंतन, इन्द्रिन कौ साधे,
अथ अंतस मन पावन करिकै
मन यौगिक अभ्यासन साधे
<span class="upnishad_mantra">समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्॥६- १३॥</span>
फिर देह शीश और ग्रीवा कौ,
दृढ़ स्थिर अचल समान करै,
न अन्य दिशा को नैकु लखे,
स्व नाक के अग्र कौ ध्यान करै
<span class="upnishad_mantra">प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः॥६- १४॥</span>
अंतर्मन शांत भयौ जिनकौ,
ब्रह्मचर्य व्रती, भयहीन मना.
मन चित्त मोहे अर्पित करिकै
अथ मोरे परायण होत जना
<span class="upnishad_mantra">युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः।शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति॥६- १५॥</span>
नित ब्रह्म सरूपहीं आत्मा कौ,
नित नित्य जो योगी लगाय रहै .
मुझ माहीं बसत है अस योगी,
निर्वाण परम पद पाय रहै
<span class="upnishad_mantra">नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन॥६- १६॥</span>
यहि योग तो ना अति खाबन सों,
अति सोबन सों, अति जागन सों.
ना होत सिद्ध कबहूँ अर्जुन!
अति होत है जिनमें उन जन सों
<span class="upnishad_mantra">युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥६- १७॥</span>
सम्यक आहार विहार शयन,
सम्यक जागृति शुभ करमन सों.
दुःख नाशक योग की सिद्धि ताहि
हुई जात है सम्यक भावन सों
<span class="upnishad_mantra">यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा॥६- १८॥</span>
जेहि काल सधे भये चिंतन सों.
परमेश्वर लीन भयो योगी
तेहि काल मिटें सब स्पर्हा
अस योग सों युक्त भयो योगी
<span class="upnishad_mantra">यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः॥६- १९॥</span>
जस वायु विहीन जगह मांहीं,
ना कोऊ दीप जलाय सके,
तस ब्रह्म विलीन जो योगी भये,
तिन चित्त ना कोऊ डिगाय सके
<span class="upnishad_mantra">यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति॥६- २०॥</span>
अभ्यसन योग सों जेहि काले,
मन चित्त सधै, उपराम भयौ ,
उर ब्रह्म बसौ , जिन ब्रह्म लख्यो ,
तस योगी ही पूरण काम भयौ
<span class="upnishad_mantra">सुखमात्यन्तिकं यत्तद् बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः॥६- २१॥</span>
जिन पावन सूक्षम बुद्धिं सों,
इन्द्रिन सों परे आनंदन कौ,
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