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तुम / शीन काफ़ निज़ाम

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तुम
किसी होनी की सूरत
साँस को सरगम बनती
ज़िस्म के हर एक मू से
कौंधती
सिहरन जगाती
झील की लहरों प' जैसे
डोलता ताज़ा कँवल
धुंध की गहरी गुफा में
सीन-ए-नाकूस से
उठता धुआँ
या किसी गहरे कुएँ में
झरते पानी की सदा

तुम
किसी वादी का रस्ता
चोटियों को चूमने को
मुज़्तरिब सा

तुम अज़ल से ता अबद
फैली फ़ज़ा

कुछ नहीं हो कर भी
सब कुछ
मुझ को मेरे होने का
अहसास देती
लम्स को आकर देती
कौन
</poem>
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