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|रचनाकार=शीन काफ़ निज़ाम
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<poem>
साहिबों
देखते हो
रात अभी बाक़ी है
और अगर रात नहीं बाक़ी तो
हम बाक़ी हैं
कितने गम कितने आलम कितने ही यादों के मकाँ
जिन में आबाद हैं हम सब के मिटे नामो निशाँ
वहमों गुमाँ

रात की राख से कब किश्ते आलम कटती है
दूधिया दुःख है वो पैगामे मुसर्रत कब है
और पैगामे मुसर्रत भी मुसर्रत कब है
साहिबों
रात का क्या
आज अगर ख़तम न होगी वो कभी तो होगी
रात से रात निकलती है न निकलेगी कभी
बात से बात निकलती है
चली जाती है
रात बाक़ी न रहे बात मगर बाक़ी रहे
बात बाक़ी है तो हम लोग सभी बाक़ी है
</poem>
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