भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
}}
<poem>
<span class="upnishad_mantra">
किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥८- १॥
</span>
अथ अष्टमोअध्याय
अर्जुन उवाच
अधिभूत के नाम सों होत है क्या?
अधिदैव के नाम को मर्म है क्या?
<span class="upnishad_mantra">अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन।प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः॥८- २॥</span>
हे मधुसूदन ! अधियज्ञ है क्या?
यहि देह में कैसे कहाँ कत है?
और अंतिम काले योगी जन,
कैसे केहि ज्ञान सों समुझत हैं?
<span class="upnishad_mantra">अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः॥८- ३॥</span>
श्री भगवानुवाच
अविनाशी अक्षर ब्रह्म परम,
तप त्याग दान और यज्ञ आदि,
सब कर्म नाम सों जात कहे
<span class="upnishad_mantra">अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥८- ४॥</span>
अधिभूत जो द्रव्य कहावत है,
उत्पत्ति विनाशन धर्मा हैं,
मैं ही अधि यज्ञ हूँ यहि देहे,
अधिदैव में होवत ब्रह्मा हैं
<span class="upnishad_mantra">अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥८- ५॥</span>
मन माहीं अटल विश्वास, हिया ,
सों अंतिम काल जो ध्यान करै,
मोरो प्रिय मोसों ही मिलिहै,
संशय यहि माहीं न नैकु करै
<span class="upnishad_mantra">यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥८- ६॥</span>
तस-तस ही ताकौ ताय मिलै,
जस भाव धरयो जीवन काले,
जस चिंतन, तस ही चित्त बसे,
कौन्तेय ! सुनौ अंतिम काले
<span class="upnishad_mantra">तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८- ७॥</span>
सों, हे अर्जुन! तुम जुद्ध करौ,
हर काल मेरौ सुमिरन करिकै,
बिनु संशय तू मोसों मिलिहै,
मन बुद्धि मोहे अर्पित करिकै
<span class="upnishad_mantra">अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्॥८- ८॥</span>
जिन रोक लियौ मन चहुँ दिस सों,
और ध्यान गहन अभ्यासन सों,
तिन नित्य निरंतर चिंतन सों,
ही जाय मिलै , ब्रज नंदन सों
<span class="upnishad_mantra">कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्॥८- ९॥</span>
अणु सों अणु , धारक पोषक कौ.
आद्यंत, अचिन्त्य,अनंता कौ,
ज्योतिर्मय रवि सम, प्रभु को जो जन,
ध्यावत नित-नित्य नियंता कौ
<span class="upnishad_mantra">प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥८- १०॥</span>
तिन भक्त योग-बल के बल सों,
भृकुटी के मध्य में प्राण धरै.
हिय सुमिरन ब्रह्म कौ ध्यान अटल,
ही अंतिम काल प्रयाण करै
<span class="upnishad_mantra">यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये॥८- ११॥</span>
जेहि मांही विरागी प्रवेश करै,
वेदज्ञ को 'ॐ ' भयौ जैसो,
ब्रह्मचर्य धरयो जेहि कारण सों,
परब्रह्म कौ सार कह्यो तोसों
<span class="upnishad_mantra">सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥८- १२॥</span>
वश में इन्द्रिन कौ विषयन सों ,
हिय मांहीं करै स्थिर मन कौ.
स्थापन प्राण कौ मस्तक में,
अथ स्थित योग के धारण कौ
<span class="upnishad_mantra">ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥८- १३॥</span>
एक 'ॐ ' कौ अक्षर ब्रह्म महे,
उच्चारत भये जिन प्राण तजे
तिन पाया परम गति , बिनु संशय ,
जिन अंतिम काले मोहे भजे
<span class="upnishad_mantra">अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥८- १४॥</span>
हे पार्थ ! मेरौ अविचल मन सों,
नित सुमिरन मन चित मांहीं करै
41
edits