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14:54, 11 जनवरी 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=कुँअर बेचैन
|संग्रह=डॉ० कुंवर बैचेन के नवगीत / कुँअर बेचैन
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<poem>
ऑफिस के
दरवाजों पर
कौन कह रहा चपरासी?
भारी-भारी तोपें हैं ।
कुछ कागज के
नोटों से
इनके मुँह खुल जाते हैं
वज़न कुर्सियों के,
इनकी बातों से
तुल जाते हैं
रिश्वतखोरी के
घर से
इनके बड़े “घरोपे” हैं।
भारी-भारी तोपें हैं।
लौटा दिया
इन्होंने ही
लंबी-चौड़ी
भीड़ों को
ये जेबों में
रखते हैं
ज़हर–उगलते
कीड़ों को
भीतर ज्वालामुखी अचल
बाहर चंदन थोपे हैं।
भारी-भारी तोपें हैं।
</poem>
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