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रश्मिरथी / सप्तम सर्ग / भाग 5

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लेखक: [[रामधारी सिंह "दिनकर"]]
[[Category:रामधारी सिंह "दिनकर"]]

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&#39;&#39;शरासन तान, बस अवसर यही है ,<br>
घडी फ़िर और मिलने की नहीं है .<br>
विशिख कोई गले के पार कर दे ,<br>
अभी ही शत्रु का संहार कर दे .&#39;&#39;<br>
<br>
श्रवण कर विश्वगुरु की देशना यह ,<br>
विजय के हेतु आतुर एषणा यह ,<br>
सहम उट्ठा जरा कुछ पार्थ का मन ,<br>
विनय में ही, मगर, बोला अकिञ्चन .<br>
<br>
&#39;&#39;नरोचित, किन्तु, क्या यह कर्म होगा ?<br>
मलिन इससे नहीं क्या धर्म होगा ?&#39;&#39;<br>
हंसे केशव, &#39;&#39;वृथा हठ ठानता है .<br>
अभी तू धर्म को क्या जानता है ?&#39;&#39;<br>
<br>
&#39;&#39;कहूं जो, पाल उसको, धर्म है यह .<br>
हनन कर शत्रु का, सत्कर्म है यह .<br>
क्रिया को छोड चिन्तन में फंसेगा ,<br>
उलट कर काल तुझको ही ग्रसेगा .&#39;&#39;<br>
<br>
भला क्यों पार्थ कालाहार होता ?<br>
वृथा क्यों चिन्तना का भार ढोता ?<br>
सभी दायित्व हरि पर डाल करके ,<br>
मिली जो शिष्टि उसको पाल करके ,<br>
<br>
लगा राधेय को शर मारने वह ,<br>
विपद् में शत्रु को संहारने वह ,<br>
शरों से बेधने तन को, बदन को ,<br>
दिखाने वीरता नि:शस्त्र जन को .<br>
<br>
विशिख सन्धान में अर्जुन निरत था ,<br>
खडा राधेय नि:सम्बल, विरथ था ,<br>
खडे निर्वाक सब जन देखते थे ,<br>
अनोखे धर्म का रण देखते थे .<br>
<br>
नहीं जब पार्थ को देखा सुधरते ,<br>
हृदय में धर्म का टुक ध्यान धरते .<br>
समय के योग्य धीरज को संजोकर ,<br>
कहा राधेय ने गम्भीर होकर .<br>
<br>
&#39;&#39;नरोचित धर्म से कुछ काम तो लो !<br>
बहुत खेले, जरा विश्राम तो लो .<br>
फंसे रथचक्र को जब तक निकालूं ,<br>
धनुष धारण करूं, प्रहरण संभालूं&nbsp; ,&#39;&#39;<br>
<br>
&#39;&#39;रुको तब तक, चलाना बाण फिर तुम ;<br>
हरण करना, सको तो, प्राण फिर तुम .<br>
नहीं अर्जुन ! शरण मैं मागंता हूं ,<br>
समर्थित धर्म से रण मागंता हूं .&#39;&#39;<br>
<br>
&#39;&#39;कलकिंत नाम मत अपना करो तुम ,<br>
हृदय में ध्यान इसका भी धरो तुम .<br>
विजय तन की घडी भर की दमक है ,<br>
इसी संसार तक उसकी चमक है .&#39;&#39;<br>
<br>
&#39;&#39;भुवन की जीत मिटती है भुवन में ,<br>
उसे क्या खोजना गिर कर पतन में ?<br>
शरण केवल उजागर धर्म होगा ,<br>
सहारा अन्त में सत्कर्म होगा .&#39;&#39;<br>
<br>
उपस्थित देख यों न्यायार्थ अरि को ,<br>
निहारा पार्थ ने हो खिन्न हरि को .<br>
मगर, भगवान् किञ्चित भी न डोले ,<br>
कुपित हो वज्र-सी यह वात बोले _<br>
<br>
&#39;&#39;प्रलापी ! ओ उजागर धर्म वाले !<br>
बडी निष्ठा, बडे सत्कर्म वाले !<br>
मरा, अन्याय से अभिमन्यु जिस दिन ,<br>
कहां पर सो रहा था धर्म उस दिन ?&#39;&#39;<br>
<br>
&#39;&#39;हलाहल भीम को जिस दिन पडा था ,<br>
कहां पर धर्म यह उस दिन धरा था ?<br>
लगी थी आग जब लाक्षा-भवन में,<br>
हंसा था धर्म ही तब क्या भुवन में ?&#39;&#39;<br>
<br>
&#39;&#39;सभा में द्रौपदी की खींच लाके ,<br>
सुयोधन की उसे दासी बता के ,<br>
सुवामा-जाति को आदर दिया जो ,<br>
बहुत सत्कार तुम सबने किया जो ,&#39;&#39;<br>
<br>
&#39;&#39;नहीं वह और कुछ, सत्कर्म ही था ,<br>
उजागर, शीलभूषित धर्म ही था .<br>
जुए में हारकर धन-धाम जिस दिन ,<br>
हुए पाणडव यती निष्काम जिस दिन ,&#39;&#39;<br>
<br>
&#39;&#39;चले वनवास को तब धर्म था वह ,<br>
शकुनियों का नहीं अपकर्म था वह .<br>
अवधि कर पूर्ण जब, लेकिन, फिरे वे ,<br>
असल में, धर्म से ही थे गिरे वे .&#39;&#39;<br>
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