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03:40, 16 जनवरी 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=जगन्नाथदास 'रत्नाकर'
}}
[[Category:पद]]
<poem>
देखि दूरि ही तैं दौरि पौरि लगि भेंटि ल्याइ,
आसन दै साँसनि समेटि सकुचानि तैं ।
कहै रतनाकर यौं गुनन गुबिंद लागे,
जौलौं कछू भूले से भ्रमे से अकुलानि तैं ॥
कहा कहैं ऊधौ सौं कहैं हूँ तो कहाँ लौं कहैं,
कैसे कहैं कहैं पुनि कौन सी उठानि तैं ।
तौलौं अधिकाई तै उमगि कंठ आइ भिंचि,
नीर ह्वै बहन लागी बात अँखियानि तैं ॥3||
</poem>