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04:13, 16 जनवरी 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=जगन्नाथदास 'रत्नाकर'
}}
[[Category:पद]]
<poem>
धाईं धाम-धाम तैं अवाई सुनि ऊधव की,
बाम-बाम लाख अबिलाषनि सौं म्वै रहीं ।
कहै रतनाकर पै विकल बिलोकि तिन्है,
सकल करेजौ थामि आपुनपौ ख्वै रहीं ॥
लेखि निज-भाग-लेख रेख तिन आनन की,
जानन की ताहि आतुरी सौं मन म्वै रहीं ।
आँस रोकि साँस रोकि पूछन-हुलास रोकि,
मूरति निरासा की-सी आस-भरी ज्वै रहीं ॥25॥
</poem>