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रश्मिरथी / सप्तम सर्ग / भाग 6

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लेखक: [[रामधारी सिंह "दिनकर"]]
[[Category:रामधारी सिंह "दिनकर"]]

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&#39;&#39;बडे पापी हुए जो ताज मांगा ,<br>
किया अन्याय; अपना राज मांगा .<br>
नहीं धर्मार्थ वे क्यों हारते हैं ,<br>
अधी हैं, शत्रु को क्यों मारते हैं ?&#39;&#39;<br>
<br>
&#39;&#39;हमीं धर्मार्थ क्या दहते रहेंगे ?<br>
सभी कुछ मौन हो सहते रहेंगे ?<br>
कि दगे धर्म को बल अन्य जन भी ?<br>
तजेंगे क्रूरता-छल अन्य जन भी ?&#39;&#39;<br>
<br>
&#39;&#39;न दी क्या यातना इन कौरवों ने ?<br>
किया क्या-क्या न निर्घिन कौरवों ने ?<br>
मगर, तेरे लिए सब धर्म ही था ,<br>
दुहित निज मित्र का, सत्कर्म ही था .&#39;&#39;<br>
<br>
&#39;&#39;किये का जब उपस्थित फल हुआ है ,<br>
ग्रसित अभिशाप से सम्बल हुआ है ,<br>
चला है खोजने तू धर्म रण में ,<br>
मृषा किल्विष बताने अन्य जन में .&#39;&#39;<br>
<br>
&#39;&#39;शिथिल कर पार्थ ! किंचित् भी न मन तू .<br>
न धर्माधर्म में पड भीरु बन तू .<br>
कडा कर वक्ष को, शर मार इसको ,<br>
चढा शायक तुरत संहार इसको .&#39;&#39;<br>
<br>
हंसा राधेय, &#39;&#39;हां अब देर भी क्या ?<br>
सुशोभन कर्म में अवसेर भी क्या ?<br>
कृपा कुछ और दिखलाते नहीं क्यों ?<br>
सुदर्शन ही उठाते हैं नहीं क्यों ?&#39;&#39;<br>
<br>
&#39;&#39;कहा जो आपने, सब कुछ सही है ,<br>
मगर, अपनी मुझे चिन्ता नहीं है ?<br>
सुयोधन-हेतु ही पछता रहा हूं ,<br>
बिना विजयी बनाये जा रहा हूं .&#39;&#39;<br>
<br>
&#39;&#39;वृथा है पूछना किसने किया क्या ,<br>
जगत् के धर्म को सम्बल दिया क्या !<br>
सुयोधन था खडा कल तक जहां पर ,<br>
न हैं क्या आज पाण्डव ही वहां पर ?&#39;&#39;<br>
<br>
&#39;&#39;उन्होंने कौन-सा अपधर्म छोडा ?<br>
किये से कौन कुत्सित कर्म छोडा ?<br>
गिनाऊं क्या ? स्वयं सब जानते हैं ,<br>
जगद्गुरु आपको हम मानते है .&#39;&#39;<br>
<br>
&#39;&#39;शिखण्डी को बनाकर ढाल अर्जुन ,<br>
हुआ गांगेय का जो काल अर्जुन ,<br>
नहीं वह और कुछ, सत्कर्म ही था .<br>
हरे ! कह दीजिये, वह धर्म ही था .&#39;&#39;<br>
<br>
&#39;&#39;हुआ सात्यकि बली का त्राण जैसे ,<br>
गये भूरिश्रवा के प्राण जैसे ,<br>
नहीं वह कृत्य नरता से रहित था ,<br>
पतन वह पाण्डवों का धर्म-हित था .&#39;&#39;<br>
<br>
&#39;&#39;कथा अभिमन्यु की तो बोलते हैं ,<br>
नहीं पर, भेद यह क्यों खोलते हैं ?<br>
कुटिल षडयन्त्र से रण से विरत कर ,<br>
महाभट द्रोण को छल से निहत कर ,&#39;&#39;<br>
<br>
&#39;&#39;पतन पर दूर पाण्डव जा चुके है ,<br>
चतुर्गुण मोल बलि का पा चुके हैं .<br>
रहा क्या पुण्य अब भी तोलने को ?<br>
उठा मस्तक, गरज कर बोलने को ?&#39;&#39;<br>
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&#39;&#39;वृथा है पूछना, था दोष किसका ?<br>
खुला पहले गरल का कोष किसका ?<br>
जहर अब तो सभी का खुल रहा है ,<br>
हलाहल से हलाहल धुल रहा है .&#39;&#39;<br>
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