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<poem>
कहीं खोल न दें
मेरे ही अवयव
मेरा रहस्य
इसलिए भागता है मन
भीड़ से...

उपवन में
चुपचाप बैठना
अच्छा लगता है
मगर वहाँ भी
छेड़ते हैं सभी
धीरे - धीरे

अपनी पंखुरियों को
खोलतीं कलियाँ कहती हैं
मेरी तरफ़ देखो
देखो न...

उनकी पंखुरियों मैं
मुस्कुराते हैं
तुम्हारे होंठ...

पक्षी शरारत से
उतर आते हैं
मेरे पास
पूछते हैं हाल
उनकी चहचहाहट में
सुनाई पड़ती है
तुम्हारी आवाज़...

निगोडी़ घास भी
अपनी सुगबुगाहट में
छिपाए रखती है
तुम्हारा स्पर्श

महुए के पेड़ से
अभिसार कर लौटी
मदमाती हवा में
होती है तुम्हारी सुगन्ध
और प्रकृति के
होठों पर
प्रेममय अनुबंध...।
</poem>