भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
प्राप्त इतने में हुआ पुर-द्वार,
प्रहरियों का मौन विनयाचार।
देख कर उनका गभीर विषाद,
भरत पूछ सके न कुछ संवाद।
उभय ओर सुहर्म्य पुलिनाकार,
बीच में पथ का प्रवाह-प्रसार।
बढ़ चला निःशब्द-सा रथ-पोत,
था तरंगित मानसिक भी श्रोत।
उच्च थी गृहराजि दोनों ओर,
निकट था जिसका न ओर न छोर।
राजमार्ग-वितान-सा था व्योम,
छत्र-सा ऊपर उदित था सोम।
 
"क्या यही साकेत है जगदीश!
थी जिसे अलका झुकाती शीश।
क्या हुए वे नित्य के आनन्द?
शान्ति या अवसन्नता यह मन्द?
है न क्रय-विक्रय, न यातायात,
प्राणहीन पड़ा पुरी का गात।
सुन नहीं पड़ती कहीं कुछ बात,
सत्य ही क्या तब नहीं हैं तात?
आज क्या साकेत के सब लोग,
</poem>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
19,164
edits