नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=परवीन शाकिर |संग्रह=खुली आँखों में सपना / परवीन …
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{{KKRachna
|रचनाकार=परवीन शाकिर
|संग्रह=खुली आँखों में सपना / परवीन शाकिर
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<poem>
बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गए
मौसम के हाथ भीग के सफ्फाक़ हो गए
बादल को क्या ख़बर है कि बारिश की चाह में
कितने बलंद-ओ-बाला शजर ख़ाक हो गए
जुगनू को दिन के वक़्त परखने की जिद करें
बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गए
लहरा रही है बर्फ़ की चादर हटा के घास
सूरज की शह पे तिनके भी बेबाक हो गए
साहिल पे जितने आब गज़ीदा थे सब के सब
दरिया का रुख बदलते ही तैराक हो गए
सूरज दिमाग लोग भी इब्लाग-ए-फ़िक्र में
ज़ुल्फ़-ए-शब्-ए-फिराक के पेचाक हो गए
जब भी गरीब-ए-शहर से कुछ गुफ़्तगू हुई
लहज़े हवा-ए-शाम के नमनाक हो गए
</poem>