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सांसारिकता में मिलती है, यहाँ निराली निस्पृहता,
:अत्रि और अनुसूया की-सी होगी कहाँ पुण्य-गृहता!मानो है यह भुवन भिन्न ही, कृतिमता का काम नहीं;:प्रकॄति अधिष्ठात्री है इसकी, कहीं विकृति का नाम नहीं॥ स्वजनों की चिन्ता है हमको, होगा उन्हें हमारा सोच,:यही एक इस विपिन-वास में, दोनों ओर रहा संकोच।सब सह सकता है, परोक्ष ही, कभी नहीं सह सकता प्रेम,:बस, प्रत्यक्ष भाव में उसका, रक्षित-सा रहता है क्षेम॥ इच्छा होती है स्वजनों को, एक बार वन ले आऊँ,:और यहाँ की अनुपम महिमा, उन्हें घुमाकर दिखलाऊँ।विस्मित होंगे देख आर्य्य को, वे घर की ही भाँति प्रसन्न,:मानों वन-विहार में रत हैं, वे वैसे ही श्रीसम्पन्न॥
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