:हिलने लगे उष्ण साँसों में, ओंठ लपालप-लत्तों से!
कुन्दकली-से दाँत हो गये, बढ़ बारह की डाढ़ों से,
:विकृत, भयानक और रौद्र रस, प्रगटे पूरी बाढोंबाढ़ों-से?
जहाँ लाल साड़ी थी तनु में, बना चर्म का चीर वहाँ,
:शूर्पणखा से बोले लक्ष्मण, सावधान कर उसे सुजान-
"मायाविनि, उस रम्य रूप का, था क्या बस परिणाम यही?
:इसी भाँति लोगों को छलना, है क्या तेरा काम यही?
विकृत परन्तु प्रकृत परिचय से, डरा सकेगी तू न हमें,
:अबला फिर भी अबला ही है, हरा सकेगी तू न हमें।
वाह्य सृष्टि-सुन्दरता है क्या, भीतर से ऐसी ही हाय!
:जो हो, समझ मुझे भी प्रस्तुत, करता हूँ मैं वही उपाय।
कि तू न फिर छल सके किसी को, मारूँ तो क्या नारी जान,
:विकलांगी ही तुझे करूँगा, जिससे छिप न सके पहचान॥
उस आक्रमणकारिणी के झट, लेकर शोणित तीक्ष्ण कृपाण,
:नाक कान काटे लक्ष्मन ने, लिये न उसके पापी प्राण।
और कुरूपा होकर तब वह, रुधिर बहाती, बिललाती,
:धूल उड़ाती आँधी ऐसी, भागी वहाँ से चिल्लाती॥
<poem>